रात नींद नहीं आ रही थी उसे
आधी रात के करीब गुज़र चुकी थी
आखिर उकता के वो खिड़की
के पास आकर खड़ी हो गई,
गली के नुक्कड़ के पास
वहाँ कूड़े के ढेर में
जहाँ गली के आवारा कुत्ते
रात के सन्नाटे में
अपने पेट कि आग मिटाने को
जगह-जगह मुँह मार रहे थे,
पुराने खम्बे कि पीली सी
खस्ताहाल रोशनी में
एक काला सा साया
लड़खड़ाते क़दमों से
उस तरफ बढ़ता जा रहा था,
चारों तरफ़ एक नज़र देखकर
अपने लबादे में से एक पुलन्दा
सा निकल के फेंक दिया था उसने
न जाने क्या था उसमे ?
वो 'पुलन्दा' फेंक कर जैसे
जान छुड़ा कर भागा था साया
भागते हुए उसके लम्बे बालों के सिवा
फासले से और कुछ भी नज़र न आया,
नज़र पड़ते ही कुत्ते झपटे थे
और मिनटों में भंभोड़ डाला था,
पूरे दिन के भूखे थे जानवर
जिसके हिस्से में जो आया
उसने उतना ही नोच लिया था,
अगली सुबह जब नुक्कड़
से गुज़र रही थी वो, तो देखा
लोगों का हुजूम सा लगा था
उसने भी झाँक कर देख लिया था
वहाँ इंसानी गोश्त के लोथड़े पड़े थे
एक दुधमुंही बच्ची कि नोची
खसोटी सी लाश पड़ी हुई थी
शायद रात का वो 'पुलिंदा'
वो मासूम सी 'बच्ची' ही थी,
कई सवाल ज़ेहन में गूँजते ही रहे
जो रात इसे यहाँ फेंक के गई थी
क्या वो भी एक 'माँ' थी?
क्या वो भी एक 'औरत' ही थी?
ये बच्ची उसके पापों का बोझ था
या उसकी मजबूरियों की गठरी,
आखिर क्यों एक औरत ही दूसरी औरत
के खिलाफ कदम उठा लेती है,
वक़्त को बदलने के लिए
चाहें कितनी ही मुश्किलें क्यूँ न हों,
एक औरत को दूसरी औरत के
साथ खड़ा होना ही पड़ेगा,