मई 27, 2013

दरख़्त की छाँव


किसी दरख़्त की छाँव तुम्हें रोक लेगी कुछ देर को 
धूप के सफ़र में मगर कदम तुम्हे बढ़ाना ही पड़ेगा,

कब तक भागते फिरोगे आखिर उस ख़ुदा से तुम 
एक रोज़ सजदे में सर तुमको झुकाना ही पड़ेगा,

कभी ऐसे भी दिन दिखलायेगा तुम्हें ये ज़माना 
आग लगी होगी दिल में और मुस्कुराना ही पड़ेगा,

कौन रख पाया है इस जग में एक साथ सबको राज़ी  
यहाँ एक की ख़ुशी के लिए दूसरे को रुलाना ही पड़ेगा,

नहीं चलता है यहाँ साथ कोई भी उमर भर 'इमरान'  
ये जिंदगी का बोझ है इसे तो तुम्हें उठाना ही पड़ेगा,


22 टिप्‍पणियां:

  1. कौन रख पाया है इस जग में एक साथ सबको राज़ी
    यहाँ एक की ख़ुशी लिए दूसरे को रुलाना ही पड़ेगा ।

    वाह ... बहुत खूब अक्षरश: सही कहा ...

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  2. एहसासों से उतारी बड़ी सच्ची ग़ज़ल लिखी है इमरान भाई आपने. बधाई.

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  3. खूबसूरत अहसास ।।इमरान जी

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  4. जीवन की सच्चाइयां.....
    बेहतरीन.....

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  5. बहुत खूब ... सभी शेर अलग अंदाज़ के ... पूरी सचाई लिए ...
    जबात भरे हो जैसे हर शेर में ... पहला और आखरी शेर जो जान है ...

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    1. शुक्रिया दिगंबर जी ज़र्रानवाज़ी है आपकी।

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  6. ्क्या कहूँ इस गज़ल के लिये इमरान बेहद उम्दा दिल को छू गयी

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  7. बहुत उम्दा,लाजबाब प्रस्तुति,,के लिए बधाई

    Recent post: ओ प्यारी लली,

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  8. बोझ उठाकर भी मुस्कुराना पड़ेगा.. सुन्दर भाव..

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  9. बहुत ही बढ़िया सार्थक अभिव्यक्ति...

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  10. बेनामीमई 30, 2013

    bahut bahut..khoob.
    ye zindgi hein bhojh uthana hi pdega...!!!
    this this very true,zindgi ki sachchai uatar di apne kalam mein imran bhai...very nice.

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  11. बहुत भावपूर्ण उम्दा ग़ज़ल...हरेक शेर दिल को छू गया...

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  12. गहन और बहुत भावपूर्ण रचना ....एक एक शब्द सत्य के करीब है ...

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  13. MashaAllah....अब इस ब्‍लॉग में आते रहेंगे...

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    1. ज़हेनसीब .............आमद का शुक्रिया......हमेशा खैरमकदम है आपका ।

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जो दे उसका भी भला....जो न दे उसका भी भला...