प्रिय ब्लॉगर साथियों,
आज एक नज़्म पेश-ए-खिदमत है कुछ दिन पहले जैसे कलम ने खुद जन्मी ये नज़्म......नज़्म का शीर्षक है ' मैं, मेरा दिल और मंज़िल' जैसे नाम से ज़ाहिर है नज़्म में मंज़िल को लेकर 'मैं और मेरे दिल' के बीच की कशमकश है...........शायद कुछ लम्बी हो गयी है आपसे दरख्वास्त है की थोडा सा वक़्त दे कर इसे पूरा ज़रूर पढ़े........बाकी आपको कैसी लगी ये ज़रूर बताएं -
न जाने क्यूँ कभी कभी ये ख्याल दिल में आता है की निकल पडूँ
किसी ऐसी जगह जहाँ दुनिया का गम न हो
और न हो किसी की जुस्तजू
मगर इस दिल का क्या करूँ, शायद वहाँ भी न लगे
और माँगे कुछ दर्द, जो जाने हो या अनजाने
कुछ आदत सी हो गयी है इस वीराने दिल को दर्द की
हर घड़ी, हर पल बेचैन सा क्यूँ रहता है ये दिल
न जाने कब कहाँ जाकर ख़त्म होगा ये सफ़र?
कहने को तो कट ही जायेगा ये सफ़र कभी न कभी
मगर क्या सुकूँ मिलेगा इस दिल को ख़ाकसार होने के बाद भी?
हर रात को ये दिल मेरा कहता है मुझसे कि ए ! मुसाफिर
तू इसलिए नहीं बना कि यूँ पैरों में बेड़ियाँ डाल कर पड़ा रह
और मनाता रहे मातम कि लगता ही नहीं दिल कहीं
आज़ाद परिंदों कि तरह परवाज़ ही तेरा मुक़द्दर है
परवाज़ के बगैर तो परिंदों के परों को भी जंक लग जाती है
और अगर यूँ ही पड़ा रहा तो लग जाएगी जंक तुझे भी
कभी सन्नाटे में आसमान कि तरफ देख
क्या तुझे नहीं सुनाई पड़ती वो आवाजें, जो जाने कहाँ से आती हैं?
चाँद के आस-पास जो नूर बिखरा पड़ा है, शायद वहां से,
या फिर इन सितारों से, या दूर कहीं वीरानों से,
ये आवाज़े हैं जो खींचती है इस दिल को
और तब ये दिल खींचता है मुझको
कभी कहता कि चल मुसाफिर
चल के बैठे दरिया के किनारे और करें कुछ बातें
पर थोड़ी ही देर बाद कहता नहीं, रास्ता गलत चुना
चल चलके भटकते हैं दश्त के वीरानों में, पर वहाँ सुकुन कहाँ?
या चल रात में तारों को देखते हैं, शायद इन्हीं में कहीं मंजिल हो
कभी जब बरसात में भीगा-भीगा सा समां हो
और दरख्तों के पत्तों से टपक रही हो कुछ बूँदे
जैसे ज़मीन पर दस्तक दे रहीं हो,
और अगर रात में हो बरसात और चाँद झाँक रहा हो बादलों में से
चाँदनी कि चादर ने ढक लिया हो पूरे समां को
और तब कहीं से सुनाई पड़े एक संगीत
जो रूह को अन्दर तक भिगो जाये
तब तन्हाई लपेट ले इस जिस्म को और ये हूक़ सी उठे कहीं से
कि काश कोई साथ होता इस वक़्त तो इस बारिश, इस चाँदनी
हर चीज़ में मदहोशी सी होती, तब फिर देता अचानक आवाज़
ए ! मुसाफिर कहाँ खो गए ? क्या मंजिल नहीं पानी?
पहले चल के मंजिल को ढूंढेंगे, पर रास्ते में ठिठकना नहीं
साथी कि तलाश में रहे तो मंजिल भी जाएगी
और रास्ते से भटकने कि तोहमत भी लग जाएगी
अँधेरे में रहकर पहले रौशनी कि तलाश करो
मैं कहूँ इससे कि अगर रौशनी मिल जाये
तो तू ठहर जायेगा, मिलेगा सुकूं तुझे?
नहीं...जवाब देगा सुकूं इंसान के लिए नहीं बना
वो सिर्फ एक जगह मिलता है और वो है मंज़िल
चल उठ मुसाफिर और चल तलाश में मंज़िल की
परिंदे कभी नहीं रुकते, क्योंकि
परवाज़, परवाज़ और परवाज़, ये परिंदों का मुक़द्दर है
ये परिंदों की जिंदगी है इसमें रिश्तों की बेड़ियाँ मत डाल
मैं कहूँ की अगर परिंदों को भी हमसफ़र की ज़रूरत हो तो?
तो कहेगा की अगर सागर पर परवाज़ कर रहे हो
तो क्या गहरे नीले पानी की सतह पर हमसफ़र को ढूंढोगे?
हमसफ़र वहीँ है जहाँ मंज़िल है
जहाँ मंज़िल नहीं वहाँ रास्ता नहीं
जहाँ रास्ता नहीं वहाँ सफ़र नहीं
जब सफ़र नहीं तो हमसफ़र कैसा?
तोड़ दो साड़ी बेड़ियाँ और उठो मुसाफिर
आओ निकल पड़े इस सफ़र पर बगैर हमसफ़र के
ढूँढने से कभी न कभी तो मिल ही जाएगी मंज़िल भी
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ख़ाकसार - मिट्टी में मिलना
दश्त - जंगल
दरख्तों - पेड़ों
bahut hi badhiya nazm...
जवाब देंहटाएंakhir mei to... bas kamaal...
bahut hi badhiya nazm...
जवाब देंहटाएंaakhir mei to bas kamaal hi hai...
मैं कहूँ की अगर परिंदों को भी हमसफ़र की ज़रूरत हो तो?
जवाब देंहटाएंतो कहेगा की अगर सागर पर परवाज़ कर रहे हो
तो क्या गहरे नीले पानी की सतह पर हमसफ़र को ढूंढोगे?
क्या बात है सर!
आपकी हर गजल गजब की होती है।
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कल 01/11/2011को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!
हमसफ़र वहीँ है जहाँ मंज़िल है
जवाब देंहटाएंजहाँ मंज़िल नहीं वहाँ रास्ता नहीं
जहाँ रास्ता नहीं वहाँ सफ़र नहीं
जब सफ़र नहीं तो हमसफ़र कैसा?बहुत ही अच्छी रचना.....
खूब ...नज़्म बहुत बढ़िया बन पड़ी है....लम्बी है पर प्रवाह बना रहा....
जवाब देंहटाएंसच कहा आपने इमरान भाई कि “कलम से खुद जन्मी”
जवाब देंहटाएंसच ऐसी नज़्म बनायी नहीं जा सकती, स्वयम जन्म ले लेती हैं...
सुन्दर खयालात...
सादर बधाई...
खूबसूरत नज़्म ...
जवाब देंहटाएंमंजिल के लिए ये परवाज़ जारी रहे .....:))
जवाब देंहटाएंअपने आप लिखी गयी यह नज्म यकीनन दिल की गहराइयों से ही निकली है... बहुत अच्छी है.
जवाब देंहटाएंमैं.. दिल.. और मंजिल एक ही शै के तीन नाम हैं, मैं ही रस्ता मैं ही राही मैं ही मंजिल हूँ जब तक यह अनुभव में नहीं आता तब तक ही सफर जारी है...
आप सभी लोगों का तहेदिल से शुक्रिया|
जवाब देंहटाएंलाजवाब ग़ज़ल... जितनी लम्बी है उतनी ही खूबसूरत है, जिंदगी के इर्द-गिर्द घूमती हुई, मंजिल की तलाश...बिना हमसफ़र के अकेले-अकेले...
जवाब देंहटाएंहलचल के जरिये आया हूँ
जवाब देंहटाएंबहुत ही अच्छी रचना...
दिल को छू
गया !
क्या बात...?
जवाब देंहटाएंक्या बात...??
क्या बात.....???
बेहद खूबसूरत नज़्म. जिंदगी एक सफर ही तो है. ये सफर खत्म समझो जिंदगी खत्म.
जवाब देंहटाएंबस भा गयी दिल को ज़ी :)
जवाब देंहटाएंदिल की गहराई से जो नज़्म निकलती है वह यकबयक ही निकलती है।
जवाब देंहटाएं..बधाई।
माफ़ कीजियेगा ...मसरूफ ज्यादा थी तो थोडा जल्दी नहीं पढ़ पायी ....बहुत खूबसूरत नज़्म है ....बेहतरीन प्रवाह अपने साथ बहाता हुआ सा .....सफ़र जारी रहे मंजिल ज़रूर मिलेगी .....शुभकामनायें.
जवाब देंहटाएंएकला चलो... प्रवाहमयी, प्रभावी , प्रश्न-प्रत्युत्तर करती पूर्ण रचना के लिए बहुत बहुत बधाई..
जवाब देंहटाएंशुक्रिया आप सभी का |
जवाब देंहटाएंbahut hi behtarin hai
जवाब देंहटाएंsundar prastuti...
सफ़र मे तो अकेला चलना होगा चाहे कोई साथ दे या नही यही ज़िन्दगी का सबसे बडा सच है…………सुन्दर भावाव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंvery beautiful......
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