अप्रैल 17, 2012

प्रश्न


प्रिय ब्लॉगर साथियों,

आज अब सबके लिए कुछ प्रश्न छोड़ रहा हूँ अपनी समझ और विवेक से उत्तर दे । ये सब कुछ आता गया मैं लिखता गया......कृपया कोई अन्यथा या निजी न ले मुझे मिलाकर :-)

क्यों हमें जीवन में कभी किसी से इतना प्रेम हो जाता हैं की जैसे अपनी जीवन की डोर उसके हाथ में थमा देते हैं, फिर उसके एक हल्का सा झटका देते ही हम भरभराकर ज़मीन पर औंधे मुंह गिरते है तो लगता है की जैसे सब कुछ बिखर गया और टूट गया......क्या इतना आसान होता है दुबारा से उठ कर खड़ा होना फिर उन्ही हाथों में जीवन की बागडोर सौंप देना या विकल्प है की अपने जीवन की डोर अपने ही हाथों में रखी जाये.....पर क्या इससे प्रेम में समर्पण की भावना आ पाती है ?

प्रेम क्या सिर्फ महसूस करने कि ही वस्तु है.....परन्तु एक आम इंसान क्या प्रेम के बदले में प्रेम नहीं चाहता......विश्वास के बदले में विश्वास नहीं चाहता ।
अगर ऐसा है तो क्या गलत है ? पर जब एक सिरे से विश्वास टूटता है तो बहुत तकलीफ होती है......और क्या टूटे हुए धागों को बिना गाँठ के जोड़ा जा सकता है ?

जीवन में बहुत कुछ ऐसा घट जाता है जिसकी हमने कभी कल्पना भी नहीं कि होती......पर जीवन तो उसी रफ़्तार से चलता जाता है पर कई बार सत्य को स्वीकार करना या उसे अंगीकार करना अत्यंत जटिल नहीं हो जाता है मानव मात्र के लिए.....कई बार ऐसा नहीं लगता कि सब मृगतृष्णा सा है फिर मन उस के लिए लालायित होता है जो परम है और कभी न मिटने वाला प्रेम दे सके......पर ये राह बहुत लम्बी और दुर्गम है इस पर चलने का ये खतरा भी है कि जो कुछ हमने रस्ते बनाये थे या माने थे वो सब गलत थे इसे भी स्वीकार करना पड़ता है फिर जब मन संसार से हटता है तो फिर संसार कि हर वस्तु से हटने लगता है.....इस जद्दोजहद में ही जीवन बीत जाना चाहिए क्या......क्यों एक आम इंसान एक फैसला करके भी उस पर दृण नहीं हो पाता है ? 

क्या ये सब मानवीय मन कि कमजोरियां है ?.....कुछ भावनाएं सीधे दिल से निकलती है क्या किसी के प्रति नजरिया बदलने से ही भावनाएं भी प्रभावित हो जाती है......और क्या भावनाओं को स्वयं पर या दुसरे पर आरोपित किया जा सकता है या एक बार भावनाओ को ठेस लगने पर वही भावनाएं फिर से आ सकती हैं ? 

आप अपनी प्रतिक्रिया अपने विवेक से दे सकते हैं कोई ज़रूरी नहीं कि प्रत्येक एक दूसरे से सहमत हो.....स्वयं कि सोच को पूरी ईमानदारी से दर्शायें यही उम्मीद है ।

44 टिप्‍पणियां:

  1. prem to aisa shbd hai..kuch bolo to bhi khamoshi.. naa bolo to bhi khamoshi...kafi achchhe se vicharo ko shbdshah kiya hai...aapne

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    1. बेनामीअप्रैल 18, 2012

      शुक्रिया आशा हजी आपका उत्तर देने के लिए।

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  2. मन से चंचल कोई नही और सारे खेल इसी के है जिसने इसे बांध लिया या कहिये इस पर अंकुश लगा लिया और फिर विवेक से हर काम किया वो ही सही राह चुन पाता है नही तो संसार के सागर मे ही डूबता उतरता रहता है और भूलभुलैया मे फ़ंसा रहता है।

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    1. बेनामीअप्रैल 18, 2012

      शुक्रिया वंदना जी आपका उत्तर देने के लिए....सही कहा आपने पर काश मन को बांध पाना इतना सरल होता ।

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  3. प्रेम मेरे ख्याल से एक दूजे कों डोर थमाना नहीं एक दूजे की डोर मजबूती से पकड़ने का नाम है ... अगर ऐसा हो सके और इमानदारी से हो तो शायद ठोकर न लगे ..

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    1. बेनामीअप्रैल 18, 2012

      उत्तर के लिए आपका शुक्रिया जनाब पर क्या जब तक हम अपनी डोर दुसरे के हाथ में नहीं देंगे तब तक वो उसे थामेगा ही कैसे और थमने पर वो उसके हाथ में हो जाती है अब उसकी मर्ज़ी है की वो उसे कैसे चलाता है ।

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  4. निःस्वार्थ प्रेम मन को कभी कमज़ोर नहीं करता बल्कि उसे और मजबूत बनाता है ! हमारी भावनाएँ मन के विचारों से संचालित होती हैं और विचार प्रेम में निहित अपेक्षा की प्राप्ति नहीं होने पर विक्षिप्त होकर भावनाओं को टूटने पर विवस कर देते हैं !, फिर शुरू हो जाता है एक ऐसे डर की अनुभूति जो दुःख का मुख्य कारण होता है !
    आभार !

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    1. बेनामीअप्रैल 18, 2012

      उत्तर के लिए शुक्रिया आपका बिलकुल सही कहा आपने ज्ञानचंद जी शायद कहीं अपेक्षाएं ही होती हैं जिनके टूटने पर ही दुःख होता है।

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  5. मानव मन इतना संवेदन शाल है कि प्रेम का आकर्षण तो उसे रहता है और रहेगा ही । इस मोह भंग में दूसरे पक्ष को भी समझना जरूरी है । प्यार सिर्फ हक नही जताता समर्पण भी मांगता है । हम में से हरेक भावना के अधीन है पर हम अपनी भावनाएं दूसरे पर नही थोप सकते ।

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    1. बेनामीअप्रैल 18, 2012

      उत्तर के लिए शुक्रिया आपका हाँ बिकुल हम अपनी भावनाएं थोप नहीं सकते पर क्या कभी कभी वक़्त या हालत के साथ भावनाओ में भी बदलाव नहीं आते हैं?

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  6. इस विषय मे बढ़िया उपदेश तो दिया जा सकता है इमरान भाई लेकिन सत्य यही है कि हम सब क्षुद्र प्राणी हैं। काम क्रोध लोभ मोह से ग्रसित कि जान ही नहीं पाते प्रेम क्या है! छोटे-छोटे स्वार्थों मे पड़कर एक दूसरे के प्रति कभी आसक्ति पालते हैं तो कभी विरक्ति घेर लेती है। सारे आदर्श पल मे कपूर की तरह भभक कर जल कर बुझ जाते हैं।

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    1. बेनामीअप्रैल 18, 2012

      उत्तर के लिए शुक्रिया आपका देव बाबू .....सही कहा आपने कथनी और करनी में फर्क आ ही जाता है इंसान की शायद हम सब सिर्फ कठपुतलियां मात्र ही हैं ।

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  7. यह उहापोह जीवन भर और सब के साथ चलती है...... पर शायद हम इंसानों को भी आदत हो जाती है वक़्त के बदलने और सब कुछ स्वीकार करने की.....

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    1. बेनामीअप्रैल 18, 2012

      उत्तर के लिए शुक्रिया आपका मोनिका जी.....सच है वक़्त के साथ ही सब कुछ बदलता है और हमे पसंद हो या नहीं हमे स्वीकार तो करना ही पड़ता है ।

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  8. आपस में स्वस्थ समर्पण भाव के बिना प्रेम को प्रेम नही मानता,अगर आपस का समर्पण एक दुसरे के प्रति विश्वास है तो प्रेम को महसूस किया जासकता है,...

    बहुत बढ़िया प्रस्तुति,सुंदर अभिव्यक्ति,बेहतरीन रचना,...

    MY RECENT POST काव्यान्जलि ...: कवि,...

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    1. बेनामीअप्रैल 18, 2012

      उत्तर के लिए शुक्रिया आपका धीरेन्द्र जी|

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  9. Its challenging to find and get love....love is illusion..its mor in books then in human...love yourself thats the best love...

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  10. आपने आपने परिचय में लिखा है मै क्या हूँ, कुछ भी तो नहीं..सिवाय खाक के...जो कुछ नहीं है उसे किसी से भला शिकायत हो सकती है...जो कुछ है या होना चाहता है वही तो मांग करता है और पूरी न होने पर दुखी होता है. प्रेम कुछ भी न होना सिखाता है. जो प्रेम दुःख का कारण बने वह मोह है प्रेम नहीं....

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    1. बेनामीअप्रैल 18, 2012

      अनीता जी शुक्रिया जवाब का आपकी कही हर बात पूर्णतया सत्य है....शायद अभी हम कुछ न होना नहीं सिख पाए.....एक आम इंसान की कमजोरियां हैं इंशाल्लाह वक़्त के साथ सब बदलेगा ।

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  11. प्रेम एक सकारात्मक सोच है .....एक ताकत है जो हमें बुरा नहीं सोचने देती .........कमजोरियों पर विजय है प्रेम .....जब हम प्रेम करते हैं .....लाख चाहने पर भी हम उसका बुरा नहीं कर पाते ....बहुत बड़े ह्रदय का व्यक्ति ही प्रेम कर सकता है ...या यूँ कहिये प्रेम व्यक्ति का ह्रदय बड़ा कर देता है .....!!इंसान को आम से खास बनाता है प्रेम ......

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    1. बेनामीअप्रैल 18, 2012

      उत्तर का बहुत बहुत शुक्रिया अनुपमा जी....हाँ ये बात सच है की लाख चाहने पर भी हम उसका बुरा नहीं कर पाते......पर एक बार गिरने पर कहीं कहीं चोट तो अवश्य ही लगती है फिर ज़ख्म भरने से भी क्या निशान मिट सकते हैं ।

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  12. अपनी बड़ाई नहीं करता प्रेम स्‍वयं कभी
    बस मन में आस्‍था रखते हुये
    आशान्वित हो जाता है
    हर बात के प्रति
    इतनी सहनशीलता होती है प्रेम में
    इसमें तो अन्‍तर्मन बस कुंदन हो जाता है
    वह देना सीख लेता है
    पाने की अपेक्षा
    बुरा नहीं सोचता ...बुरा नहीं बोलता
    कुचाल नहीं चलता ...झुंझलाता भी नहीं
    हर परिस्थिति में
    एक मुस्‍कान लबों पर सजाकर
    हर्षित रहता है हर पल
    श्रद्धा...आशा...प्रेम
    ये तीनो स्‍थायी होते हैं पर प्रेम
    इन सबमें श्रेष्‍ठ ..... बस श्रेष्‍ठ ....।

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    1. बेनामीअप्रैल 18, 2012

      उत्तर का बहुत बहुत सदा जी....आपने बहुत ही अच्छी तरह से प्रेम का वर्णन किया है पर क्या जब मन को ठेस लगी हो तो लबों पर मुस्कान सजाना इतना असं हो सकता है क्या?

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  13. मेरे विचार से प्रेम समर्पण का नाम है, इसमें बदले कि चाह नहीं होती, जहाँ कोई चाह नहीं वहां कुछ टूटने का छूटने का डर नहीं होता...और होता यही आया है प्रेम के बदले प्रेम मिलता ही है...प्रेम कभी भी दुःख का कारण नहीं बनता....

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    1. बेनामीअप्रैल 18, 2012

      उत्तर का बहुत बहुत शुक्रिया संध्या जी....ये बात सही है की प्रेम समर्पण का नाम है.....पर जहाँ तक मैंने देखा है अक्सर प्रेम ही दुःख का कारन बन जाता है ।

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  14. जहां तक मुझे लगता है सब मन का खेल है और मन संस्कारों से बनता है। मेरा मतलब है हमारी सोच हमारे आसपास हो रही गतिविधियों को देखते हुए ही बनती है फिर चाहे वो प्रेम का ही विषय क्यूँ न हो इसलिए इस विषय में मेरा मानना तो यह है कि जो दिल कहे वही सही मानना चाहिए क्यूंकि हमारा दिल हमारी आत्मा से जुड़ा होता है और हमारी आत्मा ही हमे सही मार्ग पर चलने की प्रेरणा देती है,अर्थात सही निर्णय लेने कि प्रेरणा देती है फिर भले ही वो हमारे जीवन का कोई भी पहलू क्यूँ न हो और वैसे भी प्यार में ही सब से ज्यादा धर्म संकट कि परिस्थितियाँ पैदा होती है जिसमें क्या सही है क्या गलत यह निर्णय लेना पाना लगभग नामुमकिन सी बात लगती है इसलिए ऐसे हालातों में अंतर मन की बात मानना ही ज्यादा उचित है। मगर अक्सर ऐसा हो नहीं पता क्यूंकि परिस्थियाँ ही ऐसी हो जाती हैं कि हम चाहकर भी सही निर्णय नहीं ले पाते।

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    1. बेनामीअप्रैल 18, 2012

      उत्तर का बहुत बहुत पल्लवी जी .......आपकी सभी बातों से सहमत हूँ मैं क्योंकि शायद यही व्यावहारिक सत्य है बहुत दुविधा की स्थिति में ले जाता है मन कई बार जहाँ कोई भी निर्णय करना बहुत ही मुश्किल हो जाता है ।

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  15. बहुत गंभीर सवाल उठाये हैं. प्रेम एक दूसरे के प्रति निस्वार्थ समर्पण और एक अनकहा अहसास है इसको किसी परिभाषा में बांधना बहुत मुश्किल है. एक आम आदमी प्रेम के बदले प्रेम और विश्वास के बदले विश्वास की आशा करे तो इस में गलत क्या है, लेकिन ऐसा न होने पर दुखी होना स्वाभाविक है. यद्यपि यह कठिन है लेकिन जीवन में खुश रहने के लिये प्रेम के बदले कुछ आशा न करना ही बेहतर है.

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    1. बेनामीअप्रैल 18, 2012

      उत्तर का बहुत बहुत शुक्रिया कैलाश जी .......सहमत हूँ आपकी बातों से पर एक आम इंसान शायद आशा कर ही लेता है और उसी के टूटने पर तकलीफ भी होती है ।

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  16. आपका पहला सवाल के लिए: "सच्चा प्रेम वही है जिसकी तृप्ति आत्म-बलि पर हो निर्भर,
    त्याग बिना निष्प्राण प्रेम है, करो प्रेम पर प्राण न्योछावर.."
    अगर इंसान किसी से प्रेम करता है, तो कुछ बदले में पाने की इच्छा नही रहती है, सिवा इसके की वो इंसान खुश रहे. फिर भले ही दूर रहे. तो झटका लगकर गिरने और फिर उठ खड़े होने जैसा कुछ नहीं महसूस होता..

    दुसरे सवाल के लिए: अगर प्रेम सच्चा हो तो टूटे धागे जोड़ने में कोई मुश्किल नहीं होती...

    तीसरे सवाल के लिए: प्रेम में पाने से ज्यादा देने की भावना प्रबल होनी चाहिए. तो उस पर दृढ भी रहा जा सकता है और कोई लालसा भी नहीं रह जाती ऐसी...

    अंतिम सवाल के लिए: ये मानवीय कमजोरी नहीं बल्कि ऐसे शक्ति है जो इंसान को अन्य प्राणियों से अलग करती है. प्रेम भाव जानवरों में भी होता है पर इतना प्रबल नहीं. किसी के प्रति नजरिया बदलने से बहुत कुछ बदल जाता है. और हमें ऐसा लगता है की फिर से वही भावनाएं भी आ सकती हैं पर ये हर इंसान की सोच पे निर्भर करता है. प्रत्येक व्यक्ति के लिए सत्य नहीं है.....
    :) :)

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    1. बेनामीअप्रैल 18, 2012

      उत्तर का बहुत बहुत अपराजिता .......सबसे पहले तो इतना सारा लिखा उसके लिए शुक्रिया अब ये बताओ ये सब किताबो से पढ़ा है या तुम्हारी अपनी सोच या अनुभव है :-)......कहने और करने में बहुत फर्क होता है ।

      तुम्हारी आखिरी बात बिलकुल सच है प्रित्येक व्यक्ति कि सोच ही इस बात का निर्णय कर पाती है अंतत: तो हमे अपने फैसले खुद ही करने होते हैं ।

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    2. जी पढ़ा कहीं भी नहीं है. हमारे जीवन का अनुभव है. अनुभव मतलब सिर्फ बोलने वाला नहीं, करने वाला. हमें पता है की कहने और करने में बहुत फर्क होता है. इसलिए कम बोलते हैं पर जो बोलते हैं वो सच बोलते हैं और सिर्फ वही जो हम करते हैं.
      Hope you will understand :) :)

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  17. इमरान जी, आपके प्रश्न ऐसे है जो गाहे-बेगाहे अक्सर मेरे मन में भी सर उठाते रहते हैं .... हर बार उत्तर कुछ अलग सा ही मिलता है ..... शायद हम अपनी सहूलियत के हिसाब से चीज़ों का मतलब निकलते हैं ....और शायद कभी ज़माने के दर से खुद से ही आँखे चुराते हुए झूठ बोल देते हैं ..... तो ऐसे में जब खुद अपने जवाब पे यकीं न हो तो दूसरों के जवाब पे कैसे किया जा सकता है...उनके अपने अलग अनुभव हैं हमारे अलग.....

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    1. बेनामीअप्रैल 19, 2012

      शालिनी जी बहुत बहुत शुक्रिया आपके जवाब का .....हाँ सही है ये बात की हमारे और बाकि के अनुभव अलग होते हैं पर कसक सब जगह एक सी ही हो सकती है इसलिए कभी कभी दूसरों के अनुभव से भी हम बहुत कुछ सीख लेते हैं।

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  18. भावनाओं का संसार नाजुक काँच से बना होता है जो ज़रा सी ठेस से चनक सा जाता है लेकिन इस संसार में हम अपने प्रिय पात्र को प्रवेश करने देते हैं तो हमें हरपल तैयार रहना चाहिए ऐसी चनक के लिए .. अगर सच्चा प्रेम है तो चकनाचूर होने के बाद भी वही जोड़ भी देता है .फिर तो वो चनक या गाँठ कहीं भी नहीं रह जाता है . बल्कि प्रेम और बढ़ ही जाता है . वैसे भी प्रेम लेने की नहीं बल्कि सिर्फ देने की चीज़ है ..मेरा मानना है कि जितना हम देते हैं उससे कही ज्यादा ही पाते हैं .. बस ह्रदय से सच्चा प्रेम कर के देखो... बिना मांग के. उस प्रेम को इस दुनियावी चश्में से बिलकुल ही न देखो..तो सच! ख़ुदा दिखता है ...ये सिर्फ बातें कहने के लिए नहीं है..मैंने महसूसा है ..बस कर के देखो...

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    1. बेनामीअप्रैल 19, 2012

      अमृता जी बहुत बहुत शुक्रिया आपके जवाब का .....आपकी ये बात बहुत अच्छी लगी की चकनाचूर होने के बाद भी वही प्रेम ही इसे जोड़ता है....और आपने जो महसूस किया है और अपना अनुभव है तो सच ही है ।

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  19. इमरान,
    सलाम-ए-इश्क!
    हा हा हा....
    आशीष
    --
    द नेम इज़ शंख, ढ़पोरशंख !!!

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  20. कई बार ऐसा नहीं लगता कि सब *मृगतृष्णा* सा है ....

    *मृगतृष्णा* यानि छलावा , न होते हुए भी होने का भ्रम होना .... !!
    कभी कभी हम सच्चाई को भी *मृगतृष्णा* समझ कर स्वीकार नहीं करते हैं .... !!

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    1. बेनामीअप्रैल 23, 2012

      शुक्रिया विभा जी.....हाँ शायद आप सही कह रही हैं पर कभी कभी सच बहुत कड़वा होता है जो गले से नीचे नहीं उतरता ।

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  21. प्रेम एक जटिल प्रक्रिया है. इसे हर कोई अपने अनुभव के आधार पर पहचानता है.

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    1. बेनामीअप्रैल 23, 2012

      शुक्रिया भूषण जी.....सही कहा आपने सबके अपने अनुभव हैं।

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  22. Imranji there is a very thin line between intense love and intense hatred ....जब वह लकीर कोई पार करता है ....तो वही प्यार अपनी पूरी शिद्दत के साथ नफरत में बादल जाता है ......और फिर उससे जुडी पीड़ा ..मन को व्यथित कर देती है .....प्यार में सबसे अहम् होता है विश्वास ...और वह अगर अडिग है तो दुनिया की कोई ताक़त आपके प्यार को हिला नहीं सकती ........हाँ कभी कभी कुछ कमज़ोर क्षणों में गलत फहमियां घर कर लेती हैं ...लेकिन वह भी तभी संभव है जब आपके प्यार की कोई ईंट अपनी जगह से हिली हुई हो ......और भावनाएं.....यह तो उस विश्वास को बैसाखी बनाके चलती हैं ..जो आपको अपने प्यार पर है .....इसलिए उस विश्वास को मज़बूत कीजिये ...भावनाएं खुद ब खुद मज़बूत हो जाएँगी !!!

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    1. बेनामीअप्रैल 25, 2012

      शुक्रिया सरस जी आपका जवाब का....आपने सही कहा एक बहुत बारीक़ सी रेखा है दोनों के बीच में.....पर जब विश्वास ही हिल जाये तब दुबारा से विश्वास कर पाना बहुत मुश्किल होता है चाहें अपने पहली गलती के लिए कोई कितना ही शर्मिंदा हो और माफ़ी मांगे पर दिल से बात निकल पाना बहुत मुश्किल हो जाता है खासकर तब जब आपका और उसका साथ हमेशा का हो।

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जो दे उसका भी भला....जो न दे उसका भी भला...