मन्द बहती सबा में,
दरख़्त की छाँव में
सूरज की कुछ किरने
उस पुराने पीपल के
पत्तों से छन कर तुम्हारे
चेहरे तक आ रही थी,
सर्दियों की उस अलसाई सी
सुबह की धूप के साये में
तुम्हारे रुखसार पर वो
अश्क़ बहते देखे थे मैंने
वही मेरे लिए तुम्हारा
आखिरी दीदार था,
जानता हूँ कि गुज़री
रात तुम बहुत रोईं थी
जैसे दिल का तमाम दर्द
इन आसूँओं में बहा
देना ही तुम्हारा मकसद था,
और शायद इन आसूँओं
के साथ-साथ तुमने
वो सारा प्यार भी बहा दिया
जिसके गिर्द तुमने अपनी
जिंदगी का हर सपना बुना था,
काश तुम्हारी तरह मैं भी रो पाता
तो मेरा मन भी हल्का हो जाता
अपने दिल पर जो पत्थर रखा मैंने
तमाम उम्र ढोने के लिए
उसके बोझ तले कुचल
सा गया है मेरा वजूद भी,
मैं इसलिए वहाँ से चला आया था
जानता था की अगर तुमने मेरी
आँखों की नमी देख ली होती,
तो तुम कभी मेरा दामन न छोड़तीं,
खुद को स्याह रंग कर ही
मैंने तुमको उजला किया
ताकि जीती दुनिया तक
कोई तुम्हारी तरफ एक
ऊँगली भी न उठा सके,
कहीं पाक किताबों के सफहों
में पढ़ा था मैंने की यही मुहब्बत है,
जहाँ पाना ही सब कुछ नहीं होता
जहाँ महबूब की ख़ुशी
अपनी ज़िन्दगी से बड़ी हो जाती है
हाँ, सच यही मुहब्बत है..... यही।