नवंबर 18, 2012

दीदार



मन्द बहती सबा में,
दरख़्त की छाँव में
सूरज की कुछ किरने 
उस पुराने पीपल के 
पत्तों से छन कर तुम्हारे 
चेहरे तक आ रही थी,

सर्दियों की उस अलसाई सी 
सुबह की धूप के साये में
तुम्हारे रुखसार पर वो 
अश्क़ बहते देखे थे मैंने
वही मेरे लिए तुम्हारा 
आखिरी दीदार था,

जानता हूँ कि गुज़री 
रात तुम बहुत रोईं थी 
जैसे दिल का तमाम दर्द
इन आसूँओं में बहा 
देना ही तुम्हारा मकसद था,

और शायद इन आसूँओं 
के साथ-साथ तुमने 
वो सारा प्यार भी बहा दिया 
जिसके गिर्द तुमने अपनी 
जिंदगी का हर सपना बुना था,

काश तुम्हारी तरह मैं भी रो पाता
तो मेरा मन भी हल्का हो जाता
अपने दिल पर जो पत्थर रखा मैंने
तमाम उम्र ढोने के लिए 
उसके बोझ तले कुचल 
सा गया है मेरा वजूद भी,

मैं इसलिए वहाँ से चला आया था 
जानता था की अगर तुमने मेरी 
आँखों की नमी देख ली होती, 
तो तुम कभी मेरा दामन न छोड़तीं,

खुद को स्याह रंग कर ही 
मैंने तुमको उजला किया 
ताकि जीती दुनिया तक 
कोई तुम्हारी तरफ एक
ऊँगली भी न उठा सके,

कहीं पाक किताबों के सफहों 
में पढ़ा था मैंने की यही मुहब्बत है,
जहाँ पाना ही सब कुछ नहीं होता
जहाँ महबूब की ख़ुशी 
अपनी ज़िन्दगी से बड़ी हो जाती है 

हाँ, सच यही मुहब्बत है..... यही। 


नवंबर 08, 2012

काफ़िला



मेरे देखते देखते ही गुज़र गया मेरा काफ़िला
मैं बिछड़ कर उससे फिर सफ़र में रह न सका,  

कहती थी दुनिया जिस दौलत को जहाँ का हासिल 
उसे पाने को मैं किसी गरीब का गला काट न सका, 

तोड़ते रहे लोग हमेशा मेरे दिल को आईने की तरह
मगर चाहकर भी किसी का बुरा मुझसे हो न सका, 

माना उसने दिया मुझे हज़ार बार राह में फरेब 
पर किसी और को भी तो महबूब मैं कह न सका,    

मिलती रही मुझे सज़ा यकीनन उम्र भर, क्योंकि 
किसी और पर होते ज़ुल्म को मैं सह न सका, 

उम्र-ए-गुरेज़ाँ से मेरी कभी न बन सकी 'इमरान'
इसने जो भी माँगा था मुझसे, वो मैं दे न सका,