मार्च 13, 2014

लफ्ज़



गुमशुदा से लफ्ज़ 
आते हैं ज़ेहन 
की दहलीज़ तक,

और कुछ देर 
टहलते भी है 
ख्यालों के साथ,

कागज़ पर उन्हें 
बाँधने की कोशिश में 
हाथ से फिसलते हैं,

मेरी ही तरह 
शायद लफ्ज़ भी 
बंधन से कतराते हैं,

© इमरान अंसारी

14 टिप्‍पणियां:

  1. बंधन किसे प्रिय होता है...खींचो अहसास और प्रेम के धागे से, स्वयं खिंचे चले आयेंगे...

    जवाब देंहटाएं
  2. मुक्त होना ही अंतिम सत्य है ......सुन्दर

    जवाब देंहटाएं
  3. कतराते हुए भी तो आ ही जाते हैं तब तो हमसे बतियाते हैं..

    जवाब देंहटाएं
  4. शब्द तो मुक्त हैं...हम ही उन्हें बाँधते हैं..कभी सफल...कभी असफल !

    जवाब देंहटाएं
  5. शब्द को बांधना आसान नहीं... बहुत सुंदर....!

    जवाब देंहटाएं
  6. सरल नहीं है शब्दों को बांधना .... सच कहा आपने

    जवाब देंहटाएं
  7. कभी-कभी ऐसा ही लगता है -लगता है शब्द ज़ुबान पर आया,अब आया . पर लाख कोशिश करो आता नहीं बस आभास देता रहता है ..

    जवाब देंहटाएं
  8. बहुत खूब .. बंधन में कौन चाहता है रहना ... फिर शब्द तो मासूम होते हैं ...
    लाजवाब राक्स्हना .. होली कि हार्दिक बधाई इमरान जी ...

    जवाब देंहटाएं
  9. शब्द तो जीवन हैं , मंगलकामनाएं आपको !

    जवाब देंहटाएं
  10. ह्रदय कवि का हो तो शब्द को कौन बाँध सका है. भावना की लहर रुकने कहाँ देती है चाहे कतराना कितना भी हो. अति सुन्दर रचना इमरान भाई.

    जवाब देंहटाएं
  11. आप सभी लोगों का बहुत बहुत शुक्रिया |

    जवाब देंहटाएं
  12. इमरान जी बहुत ही खूबसूरत रचना है आपकी। लफ्जों के बंधन को बहुत ही खूबसूरती से पेश किया है। आप ऐसी ही सुन्दर रचनाओं को शब्दनगरी पर भी लिख सकते हैं। वहां पर भी हैं पथ्थर के लफ्ज़ मिटा ना पाओगे जैसी रचनाएं पढ़ व् लिख सकते हैं।

    जवाब देंहटाएं

जो दे उसका भी भला....जो न दे उसका भी भला...