हर रोज़ सवेरा मेरी
दहलीज़ तक आता है
पंजों के बल खड़े होकर
नदीदे बच्चों की तरह
वो नन्हा सा सूरज
मेरी ऒर ताकता है,
दहलीज़ तक आता है
पंजों के बल खड़े होकर
नदीदे बच्चों की तरह
वो नन्हा सा सूरज
मेरी ऒर ताकता है,
किरणें गालों से मेरे
अठखेलियां करती हैं
दूर किसी शाख पर बैठी
कोई बुलबुल चहकती है,
धूप माँ के जैसे प्यार से
बालों में उँगलियाँ फेरती है
उम्मीदों से भरी अपनी
आस की झोली खोलती है
ज़िंदगी का एक और टुकड़ा
नए दिन का तोहफा देती है,
मेरे साथ-साथ ही जग सारा
अपनी नींद से जागता है
हर रोज़ सवेरा मेरी
दहलीज़ तक आता है,
© इमरान अंसारी
अठखेलियां करती हैं
दूर किसी शाख पर बैठी
कोई बुलबुल चहकती है,
धूप माँ के जैसे प्यार से
बालों में उँगलियाँ फेरती है
उम्मीदों से भरी अपनी
आस की झोली खोलती है
ज़िंदगी का एक और टुकड़ा
नए दिन का तोहफा देती है,
मेरे साथ-साथ ही जग सारा
अपनी नींद से जागता है
हर रोज़ सवेरा मेरी
दहलीज़ तक आता है,
© इमरान अंसारी
बहुत सुन्दर रचना !
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुति बहुत ही अच्छा लिखा आपने .बहुत ही सुन्दर रचना.बहुत बधाई आपको . कभी यहाँ भी पधारें
जवाब देंहटाएंसूरज के साथ साथ सवेरा आता है ... नयी उमंग लाता है ...
जवाब देंहटाएंमाँ के प्यार जैसा ... सुन्दर भाव पूर्ण .... स्वागत है आपका लम्बे समय बाद आपको पढ़ा दुबारा ...
आपकी इस रचना को पढ़कर सूर्योदय के समय की लालिमा देखने की उत्कट लालसा जाग उठी है. बहुत ही सुन्दरता से वर्णन किया है आपने.
जवाब देंहटाएंयूँ ही सवेरा आता रहे..आमीन..
जवाब देंहटाएं