नवंबर 24, 2014

सवेरा


हर रोज़ सवेरा मेरी
दहलीज़ तक आता है
पंजों के बल खड़े होकर
नदीदे बच्चों की तरह
वो नन्हा सा सूरज
मेरी ऒर ताकता है,

किरणें गालों से मेरे
अठखेलियां करती हैं
दूर किसी शाख पर बैठी
कोई बुलबुल चहकती है,

धूप माँ के जैसे प्यार से
बालों में उँगलियाँ फेरती है
उम्मीदों से भरी अपनी
आस की झोली खोलती है
ज़िंदगी का एक और टुकड़ा
नए दिन का तोहफा देती है,

मेरे साथ-साथ ही जग सारा
अपनी नींद से जागता है
हर रोज़ सवेरा मेरी
दहलीज़ तक आता है,

© इमरान अंसारी

5 टिप्‍पणियां:

  1. सुन्दर प्रस्तुति बहुत ही अच्छा लिखा आपने .बहुत ही सुन्दर रचना.बहुत बधाई आपको . कभी यहाँ भी पधारें

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  2. सूरज के साथ साथ सवेरा आता है ... नयी उमंग लाता है ...
    माँ के प्यार जैसा ... सुन्दर भाव पूर्ण .... स्वागत है आपका लम्बे समय बाद आपको पढ़ा दुबारा ...

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  3. आपकी इस रचना को पढ़कर सूर्योदय के समय की लालिमा देखने की उत्कट लालसा जाग उठी है. बहुत ही सुन्दरता से वर्णन किया है आपने.

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  4. यूँ ही सवेरा आता रहे..आमीन..

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जो दे उसका भी भला....जो न दे उसका भी भला...