अक्तूबर 30, 2012

सिंघा


प्रिय ब्लॉगर साथियों,

आज पहली बार कुछ अलग पेश है 'जज़्बात' पर, क्योंकि जज़्बात से भरा हुआ है इसलिए आप सबसे बाँट रहा हूँ । मेरी एक फेसबुक मित्र 'श्रीमती पूर्णिमा शर्मा' जी ने मुझे ये कहानी प्रेषित की थी, जो मुझे बहुत ज़्यादा पसंद आई मैंने उनसे अनुरोध किया कि मैं इसे अपने ब्लॉग पर अन्य मित्रों से शेयर करना चाहता हूँ उनकी सहमती से और उनके नाम के साथ पेश-ए-खिदमत है ये कहानी उनकी ही ज़ुबानी ।


सेव द टाइगर - सिंघा

आजकल यह नारा बुलंद है हर जगह, सोचती हूँ की हमने इस नेक काम में इतनी देर क्यों कर दी। हमें बहुत पहले ही समझ जाना चाहिए था कि हमें प्रकृति के नियमों से खिलवाड़ नहीं करना चाहिए, तो आज यह दुर्दशा नहीं होती हमारे जंगलों की ।

मैंने इस नारे के साथ एक नाम भी जोड़ दिया है जो आपको बड़ा बेतुका लग रहा होगा पर इस नाम के पीछे एक बड़ी दर्दनाक सच्ची घटना है, जो मेरी अपनी चचेरी बहन के नाम की है , जी हाँ, यह नाम मेरी चचेरी बहन का है मेरी आँखों में मेरी सिंघा का चेहरा बसा हुआ है । गौर-वर्ण ,लम्बी,छरहरी -सिंघा, जिसे मैं बहुत लाड़ में "सिंघु" कह के बुलाती हूँ क्योंकि सिंघा के रूप और नाम में घोर विरोध है कहाँ वह बिहारी की नायिका सी रूप-सुंदरी और कहाँ यह लट्ठमार नाम । कहीं कोई ताल-मेल नहीं । उसकी बड़ी-बड़ी गंभीर आँखें हमेशा कुछ बोलती सी लगती हैं।

मैंने एक बार हिम्मत करके चाची से अटपटे नाम का कारण पूछा तो वह थोड़ी देर के लिए अतीत में डूब गईं फिर बोली की किसी की याद में उन्होंने बेटी का यह नाम रखा था । सचमुच उसके नामकरण की कहानी बड़ी रोमांचकारी है आज उसे ही संक्षेप में सुनाने का लोभ मैं संवरण नहीं रख पा रही तो बात कुछ यूँ है की -

मेरे चाचा एक बार उदयपुर नरेश के साथ , किसी फॉरेस्ट आफिसर के संरक्षण में शिकार का कार्यक्रम बना बैठे । साथ थे राजाजी के कुछ अनुचर और  कुशल शिकारी दल। राजाजी खुद भी काफी तजुर्बेकार थे । साथ ली गईं कुछ  दुनाली बंदूकें, तमंचे, पिस्तौल और खाने-पीने का सामन और दूरबीन । पर तभी एक बखेड़ा खड़ा हो गया मेरी अति-आधुनिका चाची ने भी साथ में जाने की जिद ठान ली वैसे तो यूँ चाचा उन्हें कई बार छोटे-मोटे शिकार पर साथ ले गए थे ,पर इस बार शिकार करना था शेरनी का और परेशानी इस बात की भी थी चाची अभी गर्भवती थीं। पर बाल-हठ के बाद स्त्री-हठ का नंबर है । चाचा कि एक ना चली आखिरकार देर होते देख चाची की दवाइयाँ साथ लेकर सब निकल पड़े, सभी के मन में चाची के लिए चिंता और अनहोनी कि आशंका थी, क्योंकि चाची कि माँ ने सख्त आदेश दिया था, कि चाची को यथासंभव भारी कार्य व दुर्घटनाओं से बचाया जाए क्योंकि इन सब बातों का गर्भस्थ शिशु पर विपरीत असर पड़ता है कहावत है कि होता वही है जो मुक़द्दर में लिखा होता है ।

और जी सब पहुंचे रण-थम्बौर के निकट के जंगलों में, जहाँ शेरनी कि उपस्तिथि संभावित थी । मार्ग-दर्शन करने वाले ग्राम-प्रमुख ने मचान आदि का ठीक से प्रबंध करवाया, सब सुविधाएँ उपलब्ध करा कर वह गॉंव लौट गए। दो मचान बनाए गए ठीक आमने-सामने चार गज के अंतर पर । एक पर बैठे फॉरेस्ट आफिसर और राजाजी, और दूसरे पर शिकारी-दल के साथ चाचा व चाची, दोनों ही मचान शेरनी कि माँद से छः - सात गज कि दूरी पर थे । मांद से निकलकर यह पगडण्डी (जिसके दोनों ओर मचान थे ) पूर्वी नदी कि तरफ जाती थी, जहाँ शाम की छुट-पुटे में शेरनी पानी पीने जाती थी ।शेरनी को राह में ही घेरने के विचार से यह प्रबंध किया गया था, मचान के नीचे बाँधा गया था एक तंदरुस्त बकरा,  माँद से निकलने के बाद शेरनी के और कहीं जाने का कोई और मार्ग ना था।

तीन घंटे की उबा देनेवाली घोर प्रतीक्षा के बाद  माँद के करीब सूखे पत्ते खड़कने लगे तो सभी लोग दम साधे अपने शिकार का आगमन जानकर ट्रिगर पर ऊँगली गढ़ाए सतर्क हो गए, यह पहले ही तय था कि शेरनी के बकरे पर झपटते ही पहले राजा साहब फायर करेंगे और जैसे ही वह तड़प कर पीछे पलटेगी वैसे ही चाचा आदि के मचान से फायरिंग शुरू हो जाएगी ।शिकार को एक बार भी संभलने का मौका नहीं दिया जाएगा वरना सबकी खैर नहीं । दो-चार पल बीतने पर शेरनी कि छाया स्पष्ट होने लगी, निश्चित-रूप से उसने अपना शिकार देख लिया था। वह कुछ ठिठकी,  रोजाना के आवागमन मार्ग पर आज यकायक अपना भोज्य पदार्थ देख कर उसे संशय हुआ कि कहीं कोई गड़बड़ तो नहीं ? कुछ देर सारी स्थिति का जायज़ा लिया कहीं कोई आहट ना पाकर वह पूरी तरह आश्वस्त हो गई और साढ़े हुए  क़दमों से बकरे कि तरफ बढ़ी। आकाश बादलों से ढका होने के कारण घटाटोप अन्धकार था जिसे कभी-कभार आकाशीय बिजली चमक कार बींध देती थी। वह बकरे से मात्र दो गज कि दूरी पर होगी कि तभी आकाश में बड़े जोर की बिजली कड़की,शायद पास ही कहीं गिरी भी तभी वह अप्रत्याशित घटना घटी, जो न ही कही देखी या पढ़ी गयी थी और ना ही सुनी थी।

बिजली की भीषण गर्जना से या और पता नहीं क्यों चाची डर गयी और अपना संतुलन खो बैठीं, और अगले ही पल वह मचान से नीचे बकरे और शेरनी के मध्य जा गिरीं । शेरनी से मात्र एक गज की दूरी पर, कितना कम फासला था जिन्दगी और मौत के बीच? बादलों का गडगडाना,चाची का गिरना, बिजली का चमकना सब कुछ जैसे पलों में ही घट गया । जब तक सब संभल पाते तब तक चाची मृत्यु-ग्रास बनी थर-थर काँप रही थीं और ऊपर मचानों पर बैठे सभी अपनी शक्ति को भूलकर एक स्वर में ईश्वर को पुकारने लगे । शेरनी भी भौचक्की हो कर चाची को निहार रही थी, शायद वह समझने की कोशिश कर रही थी की उसके शिकार शुरू से ही दो थे, या की एक अभी जुडा था?

चाची की कातर आँखें प्राणों की भीख माँगने हेतु पहले शेरनी के मुख पर जमी फिर मृत्यु-पूर्व पति के दर्शन का लोभ संवरण ना रख पाने के कारण मचान पर बैठे चाचा को केंद्र बना एकदम झपक गईं सबने सोचा शायद हार्ट-फेल हो गया दुःख व क्रोध से चाचा काँप उठे और आवेश में आ गोली दागने ही वाले थे की इशारे से राजा साब ने रोका कि इस तरह चाची कि अस्थियों से भी हाथ धो बैठेंगे। सबकी आँखें शेरनी पर आबद्ध थी, जो कि मंद स्वर में गुर्राती हुई चाची के एकदम समीप पहुँच कर उनका विधिवत निरिक्षण कर रही थी। पेट को कुछ ज्यादा देर सूँघने के बाद, उन्हें वैसे ही छोड़कर तीव्र-स्वर में मिमियाते बकरे पर झपटी और एक ही पल में उसका काम-तमाम कर दिया और अब वह बड़ी ही निश्चिंतता से उसे चीर-फाड़ कर कलेवा कर रही थी । चाचा के मचान कि तरफ उसकी पीठ थी और राजा साहब कि तरफ मुख गनीमत यही रही कि उसकी दृष्टि ऊपर पेड़ पर नहीं उठी वर्ना क्या कोई उस यमद्वार से वापिस लौटकर कौन यह रोमांचकारी घटना सुना पाता।

बकरे से निबट वह फिर चाची के पास कुछ पल को रुकी, शायद कुछ निर्णय ले रही थी फिर चल दी अपने गंतव्य कि ओर । वह मस्त चाल से, अपने आखेटकों से अनभिज्ञ चली जा रही थी कि तभी राजाजी ने गोली दाग दी इस अचानक के हमले से वह बुरी तरह तिलमिला गई और कर्णभेदी चीत्कार के साथ बिजली कि गति से पलटी पर तब तक दसियों गोलियाँ उसका कलेजा छलनी बना चुकी थीं। एक गोली उसके पेट में लगी और एक ह्रदय-विदारक चीख मारने के बाद शेरनी की ईह-लीला समाप्त हो गयी।

एक विजयी मुस्कान के साथ सब शेरनी के समीप पहुंचे तो देखा उसकी शून्य को निहारती आँखों में अजीब सी पीड़ा थी, मानो पीछे से किये गए हमले का जवाब माँग रही हो तभी शिकारी-दल शेरनी कि ओर आया और चाचा एवं राजा साहब थर्मस में से पानी ले कर उसके छीटें चाची के मुख-मंडल पर डाल उन्हें होश में लाने का यत्न करने लगे । सभी के मन में एक प्रश्न बार-बार कौंध रहा था, जिसका कोई हल नहीं निकल रहा था कि दो बार चाची के समीप आकर भी शेरनी ने उन्हें ज़िंदा क्यों छोड़ दिया ?

काफी प्रयत्न के बाद चाची को होश आया और उधर शिकारी-दल ने सबके आश्चर्य का अंत कर दिया यह बता कर कि "साहब शेरनी के पेट से दो अर्ध-विकसित बच्चे निकले हैं", यह सुनते ही सब जैसे आकाश से ज़मीन में आ गिरे । तो इसका मतलब शेरनी गर्भवती थी । क्या इसीलिए प्रसूतानुभवी शेरनी ने अपने शिकार कि जान बख्श दी थी, यह सोचकर कि शिकार भी उसी की अवस्था में है?

वह जंगली जानवर सूँघ कर ही कैसे जान गई कि शिकार भी मातृत्व के बोझ से परिपूर्ण है ? क्या ऐसी हालत में जबकि शिकार भी माँ बनने जा रही है, वह उसे कैसे खाए ? शायद यह उस जंगल कि रानी और माता के उसूलों के परे था बिना किसी शाब्दिक आदान-प्रदान के केवल मूक अनुनय-विनय से चाची को जीवन- दान देकर वह असभ्य नर-भक्षिनी माँ इस लोक से जा चुकी थी और हम सभ्य जाति के लोगों ने अपनी झूठी शान बढ़ाने के लिए उस जीवन-दात्री को उसके माँ होने के सुख से वंचित कर दिया था । और उसके बावजूद भी हम विवेकशील प्राणी कहलाते हैं । अब शेरनी की आँखों से गिरते  हुए आँसुओं का रहस्य उद्घाटित हुआ । 

उफ़ !!! उसके इस त्याग और जीवनदान का हमने ये बदला दिया उसे ? उसका बलिदान हमारी सभ्यता पर करारा तमाचा मार गया । चाहे इन्सान  हो या शेरनी पर माँ तो आखिर माँ ही होती है । हर मादा के लिए मातृत्व-सुख सबसे बड़ा सुख होता है...............और फिर उसी जीवनदात्री शेरनी के त्याग को आजीवन याद रखने  के लिए ही चाची ने पुत्री जन्म पर बिना पण्डित की सहायता के ही पुत्री का स्वयं ही नामकरण कर दिया "सिंघा"।

सिंघा,यानि की शेरनी । शेरनी यानि की त्यागशीला, चाची का आज भी यह अंध-विश्वास है कि वह अतृप्त माँ ही उनकी कोख से जन्मी है, तभी तो सिंघा कि आँखे भी उस शेरनी जैसी ही हैं, उतनी ही पनीली, कुछ कहती हुई सी मानो सबसे उस घोर अत्याचार का जवाब माँग रही हों ।

तो दोस्तों कैसी लगी आपको ये कहानी और उसमे छुपा ये सुन्दर सन्देश.....अपनी प्रतिक्रिया से अवगत ज़रूर करवाएं । आज ही ये कहानी प्रकाशित करने से पहले पता चला है की 'सिंघा' जी का कल देहावसान हो गया है......ईश्वर उस दिवंगत आत्मा को शांति दे......आमीन........तो ये पोस्ट उनको एक श्रद्धांजलि है पूर्णिमा जी और मेरी तरफ से ।  


अक्तूबर 22, 2012

मैं क्या हूँ ?


प्रिय ब्लॉगर साथियों, 

24.10.2012 को अपनी 28वीं सालगिरह के मौके पर इस खुबसूरत दुनिया में अपनी जिंदगी का एक और साल बिताने पर खुदा का शुक्रगुज़ार हूँ......पिछले एक साल में जिंदगी ने बहुत कुछ सिखाया......बहुत कुछ खोया, बहुत कुछ पाया.....खैर ये क्रम तो चलता ही रहता है मायने ये रखता है की हमने क्या सीखा?.......इस पोस्ट के माध्यम से आप सभी दोस्तों का दिल से शुक्रगुज़ार हूँ जो अपना कीमती वक़्त इस ब्लॉग को देते हैं और हौसलाफजाई करते है........दोस्तों मेरे हक में दुआ करें की खुदा मुझे नेक राह पर चलने की तौफिक दे.....आमीन। तो पेश-ए-खिदमत है इस मौके पर ये एक नज़्म.....कोई कमीबेशी हो तो ज़रूर बताएं -


मैं क्या हूँ ?
कुछ भी तो नहीं...... 

सिवाय ज़मीन पर पड़ी 
उस खाक के, 
जिसका ज़र्रा ज़र्रा 
आफ़ताब कि रौशनी 
का मोहताज है.......

मैं क्या हूँ ?
कुछ भी तो नहीं..... 

सिवाय उस बहते 
दरिया के जो,
कभी किसी रोज़ 
सागर में मिलने 
को बेताब है........

मैं क्या हूँ ?
कुछ भी तो नहीं..... 

सिवाय उस अलमस्त 
फकीर के जिसके 
पाँवों में काँटे हैं 
और लबो पर खुदा से 
मिलन कि आस है.....

मैं क्या हूँ ?
कुछ भी तो नहीं...... 

सिवाय आसमां के उस 
तारे के जो खुद भी चमकने 
को महताब कि रोशनी 
का मोहताज है......

मैं क्या हूँ ?
कुछ भी तो नहीं.....

सिवाय उस हिना के
जो खुद को मिटा के 
बनती महबूब के हाथों 
     की ज़ीनत-ओ-आब है....

मैं क्या हूँ ?
कुछ भी तो नहीं...... 

सिवाय उस गुलाम के
जिसका सर झुकता है
उसके आगे जो,
       सारे जहाँ का सरताज है...... 

मैं क्या हूँ ?
कुछ भी तो नहीं...... 
  

अक्तूबर 08, 2012

परछाईं



तिनका तिनका जोड़ कर बनाया था जिसे 
इक पल में तुमने उस आशियाँ को आग लगाई,

दिया हर क़दम पर मुझे रुसवाइयों का तोहफा 
गुनाह था मेरा इतना कि तुमसे की आशनाई,

मुद्दतों बाद सीखा था मैंने फिर से मुस्कुराना 
पर तुम्हें तो मेरी ख़ुशी कभी रास ही न आई,

या मेरे खुदा ! क्या खूब है तेरी भी खुदाई
अगरचे इश्क है दुनिया में तो संग में जुदाई,  

बाँधा करते थे हम तुमसे उल्फत की उम्मीदें 
  पर कहाँ तुमने कभी रस्म-ए-मुहब्बत निभाई, 

भर सके जो मेरे इन गहरे ज़ख्मों को 
ढूंढ रहा हूँ मैं हर जगह वो मसीहाई,

छोड़ दिया है अब तो मैंने खुद को उसके जिम्मे 
चल रहा हूँ बेख़ौफ़, जबसे ये राह उसने सुझाई, 

डूबते हुए को कोई गैर क्यूँ दे बढ़ाकर अपना हाथ
 बुरे वक़्त में तो साथ छोड़ देती है अपनी भी परछाईं,