फ़रवरी 27, 2013

कस्तूरी


जहाँ कहीं जिस ओर भी इशारा मिला
उसी तरफ उसे ढूँढता रहा बढ़ता रहा 
कभी इससे पूछता तो कभी उससे 
कहीं कोई सुराग नहीं मिलता था 
दूसरे तो जैसे अंजान थे उससे,

ये ख़ुशबू सिर्फ उसे ही आती 
दिल-ओ-दिमाग पर छा जाती  
एक मदहोशी का आलम बनता  
कुछ देर अपने को भी भूल जाता 

जहाँ भी वो जाता उसके साथ होती 
ढूँढने पर न जाने कहाँ खो जाती
यहाँ वहाँ जाने कहाँ कहाँ ढूँढा उसे 
जिसने जो बताया वही किया उसने 

एक रोज़ थक कर बैठ गया वो 
बंद करके आँखें देखा अपने भीतर
जो उसे पागल बनाये दे रही थी 
वो खुशबू तो थी उसके अपने ही अन्दर 

अब उसने जाना वो तो सदा से थी
बस वही कभी उसे जान नहीं पाया 
वो खुशबू जो उसे एक मामूली से 
'कस्तूरी' बनाती है सदा के लिए,
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नोट - ये पोस्ट मैंने दोनों को ख्याल में ले कर लिखी है 'हिरन' और 'मनुष्य' जो आपको भाए आप वो मतलब लें ले । इसलिए कहीं पर भी दोनों का ही ज़िक्र नहीं किया है.......प्रयास कैसा रहा.....आपकी अमूल्य राय की प्रतीक्षा में.......


फ़रवरी 20, 2013

अब के बहार



अब के बहार चुनर मोरी रंग दे......

तूने बख्शी तो दी मुझको ये कोरी 
मौला ! हो गई चुनर मोरी मैली, 

अब के बहार चुनर मोरी रंग दे...... 

दिखते रहे मुझे हर तरफ सब्ज़बाग़ 
साथ लगते रहे मोरी चुनरी में दाग, 

अब के बहार चुनर मोरी रंग दे...... 

हो मोरी चुनर में रंग हरा, पीला और लाल 
कितना बेचैन हूँ मैं, तू ही जाने मेरा हाल, 

अब के बहार चुनर मोरी रंग दे.......

रंगरेज़ मेरे ऐसे रंगियो कि रंग नहीं छूटे 
तुझसे लगी अब मेरी ये लौ नहीं छूटे, 

अब के बहार चुनर मोरी रंग दे.......

कर मुझ पर मेरे रंगरेज़ इतना सा अहसान 
तेरा था, तेरा है और तेरा रहेगा ये 'इमरान'

अब के बहार चुनर मोरी रंग दे.......

फ़रवरी 12, 2013

हासिल



कभी खीझकर बाहर के शोर से कान बंद कर लेता हूँ
तो अपने ही भीतर का शोर मुझे पागल बनाने लगता है,

इस दौर में वही कामयाबी की मंजिल तक पहुँचता है 
जो हर कदम पर अपनी आत्मा को दबाने लगता है, 

अब उस बुज़ुर्ग से हर कोई बच के गुज़रता है, क्योंकि 
कहते है जिसे पाता है किस्से पुराने सुनाने लगता है,

पाक़ क़िताब में वादा है उसका, वो ज़रूर सुनता है सदा 
मगर जब कोई सच्चे दिल से उसे बुलाने लगता है 

नहीं मिलता है दोनों जहाँ में उसका हासिल 'इमरान'
करके अहसान किसी पर जो उसको जताने लगता है,


फ़रवरी 04, 2013

ख़ुशी



वो सब साथ-साथ ही बढ़ रहे थे,
मेरी जिंदगी के आँगन में, 
रहम, हमदर्दी और इंसानियत 
सबसे छोटी और मासूम थी 
'ख़ुशी' नाम की छोटी सी चिड़िया  
बड़े नाज़ो से पाल रहा था मैं उसे,

इक दिन वक़्त नाम का बहेलिया 
महबूब का बहरूप भर के आया था,
धोखे के तीरों से तरकश भरा 
हुआ था उसका और उस पर 'भरोसे' का 
ज़हर भी लगा लिया था 

एक तीर निशाना लगा कर 
मासूम पर साधा था उसने 
तेज़ नेज़ा सीधे दिल में उतर गया 
बस उसी दिन वहीँ पर 
मेरी 'ख़ुशी' ने दम तोड़ दिया था,

तब से मेरी जिंदगी के आँगन में 
और सब कुछ है सिवाय "ख़ुशी" के,