जुलाई 25, 2013

एकालाप

प्रिय ब्लॉगर साथियों,

आज पहली बार हिंदी में कविता लिखने का प्रयास किया है......आपके समक्ष  ये कविता आलोचना के लिए भी प्रस्तुत है आप पाठकों से (अनीता जी, अमृता जी और निहार रंजन से खास) अनुरोध है कि जो भी कमी-बेशी नज़र आए उसे निसंकोच कहें........ ये मुझे आगे अधिक अच्छा लिखने की प्रेरणा देगा.........

एक बात और है मेरे ब्लॉग के पुराने मित्र / पाठकों को मैं ये बताना चाहता हूँ कि अब इस ब्लॉग पर सिर्फ मेरी अपनी लिखी हुई रचनाएँ ही पोस्ट होती हैं जो पिछले काफी अरसे से नियमित हैं पुरानी पोस्टें जो मेरे द्वारा लिखित नहीं थी और ब्लॉग पर प्रकाशित की गईं थी वो सारी मैंने इस ब्लॉग से अब हटा दी हैं और आगे भी अच्छा या बुरा जैसा भी है जज़्बात पर सिर्फ मेरा अपना लिखा हुआ ही मिलेगा........बात इमानदारी की थी और है इसलिए आज ये सूचना आप सबको दी ......उम्मीद है कि आप लोग हमेशा कि तरह हौसला-अफज़ाई करते रहेंगे । तो पेश है ये हिंदी कविता..............
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रात्रि की ये निस्तब्ध नीरवता 
नभ में फैली चन्द्र की शीतलता,

सरिता का प्रवाह भी कैसा मंद है 
परन्तु हृदय की कली अभी बंद है,

विचारों से दूषित अभी ये मन है  
पतझड़ में घिरा अभी उपवन है,

अभी काम, क्रोध, घृणा और द्वेष है
धरता ये मन तरह-तरह के भेष है,

मित्रता, स्नेह और प्रेम के बंधन हैं 
बढ़ते पाँवों की ये भी एक जकड़न हैं, 

दूरगामी पथ पर चलता एक पथिक 
जीवन क्या है और इससे अधिक,

विस्तृत होता हर दिशा में विरोधाभास 
कैसे अनुभूत करूँ मैं भीतर की सुवास, 

क्षीण ही सही पर होता है ये आभास 
पूर्ण होगा स्वयं को पाने का प्रयास, 

क्या ये एक विक्षिप्त का प्रलाप है
अथवा ये केवल मेरा एकालाप है,


जुलाई 16, 2013

आज

मैं डरा-डरा सहमा सा 
शाम के धुंधलके में......... 

जैसे ही अपने 'आज' को 
पोटली में समेटकर 
चार कोस आगे आने वाले
'कल' की ओर लेकर चलता हूँ,
कि तभी अतीत के अँधेरे से 
निकलने वाले काले साए  
मुझे चारों तरफ से घेर लेते हैं,
और मुझ पर जानलेवा हमला करके 
मेरी पोटली से वो मेरा 'आज' चुराकर
फिर से अतीत के अंधेरों में ग़ुम हो जाते हैं, 

हर रोज़ ही ये कहानी 
खुद को दोहराती है.......
बड़ी मशक्कत से मैं रोज़ 
एक नया 'आज' कमाता हूँ 
और रोज़ ही अतीत के वो काले साए 
मुझसे मेरा आज छीन के ले जाते हैं,
और मैं रोज़ मिलने वाले ज़ख्मों 
को भर कर फिर से निकलता हूँ
जिंदगी कि सख्त राहों पर,

इस उम्मीद में कि कभी न कभी मैं 
अतीत के सायों से अपने 'आज' को 
महफूज़ बचाकर चार कोस पर 
आने वाले 'कल' तक ले जाउँगा
क्योंकि कहते हैं वहाँ जो सूरज 
एक बार निकलता है 
वो फिर कभी नहीं डूबता  
उस के उजाले में अतीत के 
काले सायों से सदा के लिए 
छुटकारा मिल जाता है,  

मैं डरा-डरा सहमा सा 
शाम के धुंधलके में..............

जुलाई 06, 2013

बारिश


आज फिर आई थी बारिश 
हर बार की तरह..........

मेरी खिड़की के दरवाज़ों पर,
बहुत देर तक खटखटाती रही
अन्दर तक आ जाने के लिए,

और मैं, किसी ख्याल में ग़ुम 
अपने ज़ेहन की कोठरी में 
किसी याद से बंधा पड़ा था,

जब तक मैं खिड़की पर आया
तो काफी देर इंतज़ार करके 
वो मायूस होकर लौट गई थी ,

जाते-जाते खिड़की के काँच पर 
मेरे लिए अँगुली से लिखा  
एक संदेसा छोड़ गई थी,

इन सीलन भरी कोठरियों में
तुम्हारा दम घुट जाता होगा,
मेरी बौछारें तुम्हें जिंदा रखेंगी,

कब तक मुझसे बचते रहोगे
फिर आऊँगी अगले बरस,
तुम्हें अन्दर तक भिगोने को,

कहती थी पगली कि तुम्हें
उस 'जहाँ' कि सैर कराऊँगी 
जहाँ सिर्फ बारिश ही नहीं बल्कि 
अल्लाह कि नेमतें बरसती हैं,   

आज फिर आई थी बारिश 
हर बार की तरह..........