जुलाई 01, 2014

दुःख



हाँ, दुखी हूँ मैं 
करता हूँ इसे स्वीकार 
किया सुख को अंगीकार 
तो इसे कैसे करूँ इंकार 

उदासी की काली चादर 
ढक लेती जब मन को,
विषाद के घनीभूत क्षण 
कचोटते है तब मन को,

निकल भागने को बेचैन 
हो उठता व्याकुल मन,
स्वयं को ही शत्रु मान
आत्मघात को आतुर मन, 

मेरा ये दुःख भी तो 
सुख की ही उत्पत्ति है 
क्या पलायन करने में 
दुःख की निष्पत्ति है ?

जितना है जो संवेदनशील 
होता उसे दुःख का संज्ञान 
जड़ है जो, नहीं होता उसे 
जीवन में दुःख का भान,

दुःख को जीना ही होगा 
यदि इसके पार जाना है,
काँटों पर चलना ही होगा 
यदि विश्राम को पाना है ,

हाँ, दुखी हूँ मैं 
करता हूँ इसे स्वीकार 
किया सुख को अंगीकार 
तो इसे कैसे करूँ इंकार 

© इमरान अंसारी