मई 27, 2013

दरख़्त की छाँव


किसी दरख़्त की छाँव तुम्हें रोक लेगी कुछ देर को 
धूप के सफ़र में मगर कदम तुम्हे बढ़ाना ही पड़ेगा,

कब तक भागते फिरोगे आखिर उस ख़ुदा से तुम 
एक रोज़ सजदे में सर तुमको झुकाना ही पड़ेगा,

कभी ऐसे भी दिन दिखलायेगा तुम्हें ये ज़माना 
आग लगी होगी दिल में और मुस्कुराना ही पड़ेगा,

कौन रख पाया है इस जग में एक साथ सबको राज़ी  
यहाँ एक की ख़ुशी के लिए दूसरे को रुलाना ही पड़ेगा,

नहीं चलता है यहाँ साथ कोई भी उमर भर 'इमरान'  
ये जिंदगी का बोझ है इसे तो तुम्हें उठाना ही पड़ेगा,


मई 13, 2013

विरोधाभास


प्रिय ब्लॉगगर साथियों,

माफ़ी चाहूँगा की पिछले कुछ दिनों से व्यस्तता के चलते आप सबके ब्लॉग पर आना नहीं हुआ........समय मिलते ही आपके सभी के ब्लॉग पर उपस्थित होऊँगा...........आज एक हलकी फुलकी सी नज़्म लिखी है....... थोडा सा मुस्कुराते हुए भी बात पर गौर ज़रूर किजिएगा........मकसद है इसमें भी :-))

एक बात आज पहली बार अपने ब्लॉग पर बिना किसी तस्वीर के पोस्ट डाल रहा हूँ बतौर एक प्रयोग....... उम्मीद है आपको पसंद आये.......अपनी बेबाक राय निष्पक्ष दें.......इंतज़ार रहेगा । 
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उस रोज़ यूँ ही बाज़ार में घूमते-घूमते 
बुक स्टाल पर खड़ी हो गई जाकर,
यूँ ही किताब के  पन्ने पलटते हुए 
एक नज़्म पर आँखें जमी रह गईं थी, 
एक ही साँस में पूरी नज़्म पढ़ डाली थी तब,
जैसे अन्दर तक भिगो गई थी नज़्म
किताब का उन्वान देखा 'सागर का साहिल' 
किसी शायर 'साहिल' की नज्में थीं उसमें,
घर आते ही पूरी किताब ख़त्म कर डाली,
देखते ही देखते 'साहिल' ने अलमारी पर 
और दिल पर भी कब्ज़ा कर लिया,

उसकी नज्में ही बिछाने और ऒढने लगी 
न जाने कब 'साहिल' जिंदगी का साहिल बन गया,
उसे देखने की, उससे बातें करने की 
एक हूक सी दिल में उठने लगी
यहाँ वहाँ भागदौड़ करके आखिर 
साहिल का पता ढूँढ ही निकाला
इतवार के रोज़ सुबह ही तैयार होकर 
अपने 'साहिल' से मिलने के लिए पहुँची
पुराने शहर की एक तंग से गली में मकान था 
रास्ते पर यहाँ वहाँ कूड़ा बिखरा पड़ा था 
घर पहुँच कर पता चला 'वो' अकेले रहते हैं 
और अक्सर घर पर नहीं पाए जाते है,
शायद नुक्कड़ की चाय की दुकान पर मिलें,

वहाँ पहुँची तो पता चला की उधर टेबल पर बैठे हैं
जो उधर देखा तो यकीन नहीं हुआ की यही है 
मैला कुचैला सा सफ़ेद कुरता पायजामा 
बिखरे बेतरतीब बाल, बढ़ी हुई दाढ़ी 
पास जाकर पूछा 'साहिल' साहब आप ही हैं ?
पान की एक लाल-लाल पीक थूक कर
और उसी रंग के दाँत दिखाकर   
उन्होंने फ़रमाया ' जी, हाँ ........मैं ही हूँ'
कहिये आप की क्या खिदमत करूँ,
मुझसे और कुछ भी कहते-सुनते न बना 
चुपचाप वहाँ से लम्बे डग भरती हुई भागी 

रास्ते भर यही सोचती रही की इतना विरोधाभास
इतनी रूमानी ग़ज़लें लिखने वाला शायर 
खुद इस तरह की जिंदगी जीता है 
खुद अकेले रहने वाला शख्स
जिंदगी भर साथ की बाते करता हैं 
कुदरत की खूबसूरती की तारीफें करने वाला
खुद इतनी गंदगी में कैसे जी लेता है
सोचते-सोचते "ग़ालिब" साहब का ख्याल आया
फिर न जाने क्यूँ खुद ही हँसी छूट गई
ख्यालों और हकीक़त में यही फासला है,
रचना और रचनाकार में भी भेद होता है,
कथनी और करनी का भी यही फर्क है शायद,

मई 02, 2013

बदलाव



वो रात के चमकते हुए सितारे हों 
या दिन में तपता हुआ सूरज
वो सुबह की मखमली ओस हो 
या आसमान से गिरती बारिश 

वो सदा बहता हुआ दरिया हो 
या फिर अटल खड़े हुए पर्वत,
वो फूलों की महकती खुशबू हो 
या सुलगती हुई चिता की राख,

बस हर, तरफ हर ओर यही देखा मैंने 
इस क़ायनात में कुछ भी क़ायम नहीं,
बदलाव ही बदलाव है यहाँ सब तरफ
एक चीज़ मिटती है तो दूसरी बनती है,

पल भर में विश्वास बदल जाते हैं 
एक ठोकर में श्रृद्धाएँ डगमगाती हैं,
कहीं भी नहीं रुकता है ये सिलसिला 
जो आज है वो कल नहीं रहता है,

निशानियाँ ही निशानियाँ बिखेरी है 
मेरे रब ने बन्दे के लिए दुनिया में, 
ताकि इंसान को सदा ये याद रहे कि
इस क़ायनात में कुछ भी क़ायम नहीं,