अगस्त 31, 2013

तामीर


अपनी हसरतों के गारे से 
उम्मीदों की ईंटों की चुनाई कर 
यकीन की बुनियाद पर 'रिश्तों'
की ईमारत तामीर की थी मैंने,  

इश्क के छप्पर तले  
कई सुनहले दिन और 
कई खवाबों भरी रातें
कितने सुकूँ से बीती थी,

पर एक रात जब खुद को 
दुनिया के गम से महफूज़ समझ 
मैं गफलत की नींद सो रहा था 
तभी वक़्त का ज़लज़ला उठा 

जिसने यकीन की बुनियाद को 
जड़ से हिला कर रख दिया  
पल भर में ईमारत धूल में मिल गई 
और मैं मलबे के नीचे कहीं दब गया,

बामुश्किल बाहर आ सका, मेरे आलावा 
मेरा कुछ भी बाकी न बचा,
भीड़ अपनी-अपनी इमारतें बचाने में लगी रही 
शिकायतों और सलाहों से भरी आवाजें गूँजती  
वजह बुनियाद का कमज़ोर होना था 
या फिर कच्चे गारे की वो चुनाई 
जो एक ही बारिश में दरक गई थी,

समझाया लोगों ने कि यूँ मायूस न हो 
फिर से कोशिश करो और एक 
नई बुनियाद पर नयी ईमारत तामीर होगी,        

और मैं अपने ज़ख्मों को कुरेदता
दिल में ये सोचता रहा कि हम 
इन्हें बनाते रहेंगे और वक़्त गिराता रहेगा 
यहाँ बनी सभी कच्ची-पक्की इमारतें 
एक न एक दिन धूल में मिल जानी हैं,

तब से ये आसमान ही मेरे सर की छत है 
और ये ज़मीं मुझे अपने आगोश में लेकर 
दुनिया के हर फ़िक्र-ओ-गम से महफूज़ रखती है,
जब खोने को कुछ बाकी न बचा 
तब मुझे वो मिला जो कभी नहीं खोता…….

पिंजड़ों में परवाज़ें नहीं हुआ करती 
उसके लिए पंखों का खुलना ज़रूरी है,

अगस्त 17, 2013

पूरे चाँद की अधूरी रात



वो पूरे चाँद की एक अधूरी सी रात,
जो जिंदगी में ठहर सी गई है,  

वो दरिया का किनारा 
पूरे चाँद की नीली सी रौशनी 
जो दरिया के पानी पर हिचकोले लेती 
दूर तक तैरती चली जाती थी,

उसके साथ-साथ वक़्त 
और हम भी बहते रहे, 
इस एक आखिरी मुलाक़ात में 
एक लम्बी ख़ामोशी के दरमियाँ 
तुम्हारे होंठ कुछ कहने के लिए 
कई बार काँपते रह गए,

और मैं जान के भी अनजान 
गुमसुम सा पानी के उठते 
बुलबुलों को एकटक देखता 
दिल में उनकी लम्बी जिंदगी 
की दुआ माँगता रहा…….

हमारा प्यार भी तो ऐसा ही था,
वक़्त का तेज़ बहाव आज इसे 
अपने साथ बहा ले जाएगा,
लरज़ते हाथो से तुमने अपना 
हाथ मेरे हाथ में लेकर 
हमेशा के लिए विदा माँगी थी,

उस रोज़ तुमने कहा था 
हम इस दरिया के दोनों 
किनारे जैसे ही हैं जो...... 
एक दूसरे के बिना मुक़म्मल नहीं 
एक दूसरे से जुदा भी नहीं,
पर जिनका कभी मिलन नहीं होता, 
  
वो पूरे चाँद की एक अधूरी सी रात,
जो जिंदगी में ठहर सी गई है,  

       

अगस्त 05, 2013

करम


बहुत सख्त हो कर भी टूट जाता है दरख़्त 
बचता है वही जो अन्दर से कुछ नरम हो, 

कोई किसी का दुश्मन न रहे जहाँ में  
काश के दुनिया में एक ऐसा धरम हो, 

मिलेगी तुझे भी पाक सुराही से शराब 
शर्त है ये मगर की प्यास तेरी चरम हो,

बच जाता है वो शख्स गुनाहों से अक्सर 
बाकी जिसके अन्दर थोड़ी सी शरम हो,

अपनी तलाश निकालती है गौतम*को बाहर 
दुनिया की ऐश से भरा चाहें उसका हरम हो, 

सवालिया निशान लगते हैं तेरे वजूद पर भी 
दिखा अपना जलवा दूर दुनिया का भरम हो, 

मंजिल खुद तुम्हें ढूँढ लेगी एक रोज़  'इमरान' 
तेरे मौला का बस एक तुझ पर जो करम हो, 

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*गौतम* - यहाँ आशय गौतम बुद्ध से है ।