अप्रैल 10, 2013

हकीक़त



तेरे देखते-देखते दुनिया कहाँ से कहाँ निकल गई 
एक तू है जो अभी तक ख्यालों में कहीं खो रहा है,  

देखना इन्हीं से होंगे एक रोज़ खुद तेरे पाँव घायल
आज जिन काँटों को तू दूसरों के लिए बो रहा है,

शायद यही है जिंदगी की हकीक़त ए ! मेरे खुदा
मौजों में है सफीना और माँझी गाफ़िल सो रहा है,

बख्श देगा शायद क़यामत के रोज़ ख़ुदा उसको 
करके तौबा अब अमाल से गुनाहों को धो रहा है, 

यहाँ कौन है जो किसी के बोझ को उठा ले 'इमरान'
हर शख्स अपना सलीब अपनी पीठ पर खुद ढो रहा है, 

अप्रैल 02, 2013

सत्य



'सत्य' एक अनसुलझा सा शब्द 
या जीवन भर की एक खोज,
कितने लोगों से कितनी ही बार 
सुनता रहा हूँ  'सत्य' के बारे में 

पर नहीं देता किसी पर ज्ञान-ध्यान 
अपने ही अनुभवों में खोजता हूँ इसे,
और जो स्वयं से सीख पाया हूँ वह है 
'सत्य' कहना कही अधिक सरल है 
अपेक्षा 'सत्य' को सुनने के,

पिघले हुए सीसे के सामान ही 
कई बार गिरता है ये कानों में,
और भीतर जो 'मैं' कि एक परत है 
बहुत यत्नों से बनाता है मनुष्य जिसे
क्षण में ही छिन्न-भिन्न कर देता है,

मैं, तुम या सम्पूर्ण संसार, कोई नहीं 
जो 'सत्य' को सुनने के लिए राज़ी हो 
पुरखों या किताबों से 'सत्य' नहीं मिलता 
'सत्य' केवल एक शब्द मात्र नहीं 
यही जीवन का एकमात्र 'लक्ष्य' है,