तेरे देखते-देखते दुनिया कहाँ से कहाँ निकल गई
एक तू है जो अभी तक ख्यालों में कहीं खो रहा है,
देखना इन्हीं से होंगे एक रोज़ खुद तेरे पाँव घायल
आज जिन काँटों को तू दूसरों के लिए बो रहा है,
शायद यही है जिंदगी की हकीक़त ए ! मेरे खुदा
मौजों में है सफीना और माँझी गाफ़िल सो रहा है,
बख्श देगा शायद क़यामत के रोज़ ख़ुदा उसको
करके तौबा अब अमाल से गुनाहों को धो रहा है,
यहाँ कौन है जो किसी के बोझ को उठा ले 'इमरान'
हर शख्स अपना सलीब अपनी पीठ पर खुद ढो रहा है,
यहाँ कौन है जो किसी के बोझ को उठा ले
जवाब देंहटाएंहर शख़्स अपना सलीब खुद ढो रहा है...बहुत खूब !!
बहुत शुक्रिया ऋता जी ।
हटाएंयहाँ कौन है जो किसी के बोझ को उठा ले 'इमरान'
जवाब देंहटाएंहर शख्स अपना सलीब अपनी पीठ पर खुद ढो रहा है,
.... वाह बहुत खूब
बहुत शुक्रिया सदा जी ।
हटाएंwah... man ko choo gyi...badhai
जवाब देंहटाएंबहुत शुक्रिया विजय जी ।
हटाएंvery good nice bahut badia makta behetreen hai
जवाब देंहटाएंwah wah wah imraan bhai khuda aap ko lambi umr de kamyaab kare.
L.ansari
ज़हेनसीब........ लईक भाई ब्लॉग पर आने का और इतनी खुबसूरत टिप्पणी देने का शुक्रिया ।
हटाएंखूब, बहुत ही बढ़िया लिखा है
जवाब देंहटाएंबहुत शुक्रिया मोनिका जी।
हटाएंवाह प्रभावशाली रचना ....
जवाब देंहटाएंशुक्रिया पल्लवी जी।
हटाएंबहुत खूबसूरत ढंग से एक कड़वी हक़ीक़त बयाँ की है
जवाब देंहटाएंबहुत शुक्रिया सरस जी।
हटाएंवाह बहुत प्रभावी उम्दा प्रस्तुति !!! इमरान जी ,
जवाब देंहटाएंrecent post : भूल जाते है लोग,
बहुत शुक्रिया धीरेन्द्र जी।
हटाएंउम्दा लेखन इमरान भाई। सार्थक और सटीक।
जवाब देंहटाएंबहुत शुक्रिया मधुरेश जी।
हटाएंबहुत अच्छी ग़ज़ल इमरान भाई. कांटे बोने वाले खुद घायल होते है ये सब जानते है पर फिर भी देखिये ... कितने कांटे बोने वाले हैं हमारे इर्द-गिर्द. दुःख होता है.
जवाब देंहटाएंसही कहा निहार भाई दुःख तो होता है पर जो जैसा करता है अल्लाह उसे एक दिन उसके किये का बदला ज़रूर देता है।
हटाएंबहुत ख़ूबसूरत ग़ज़ल...दिल को छू जाती...
जवाब देंहटाएंशुक्रिया कैलाश जी ।
हटाएंबहुत खूब ....
जवाब देंहटाएंहर शख्स को अपने किये की सलीब खुद ही उठानी होती है....!
ये अलग बात है वो उनके लिए दूसरों के कंधे खोजता रहता है...जहाँ अपने कर्मों का भर उस पर लाद सके...!!
लेकिन ईश्वर ऐसा नहीं होने देता...यहाँ तक कि इंसान के रूप में जब भी वो धरती पे आया..खुद उसने भी अपने कर्मों को खुद भोगा है शरीर से...!
सही कहा ...अपनी कर्मों की सलीब हमें खुद ही उठानी पड़ती है...वो लोग बकवास करते हैं जो ये कहते घूमते हैं कि उन्हें दर्द कोई और दे रहा है....!!
जियो भाई...!!
देखना इन्हीं से होंगे इक रोज खुद तेरे पाँव घायल...
आज जिन काँटों को तू औरों के लिए बो रहा है...
क्या खूब कहा है....!!
बहुत खूब...!
किन लफ़्ज़ों में शुक्रिया अदा करूँ दी.......हौसलाफजाई का तहेदिल से शुक्रिया ।
हटाएंहर शख्स अपना सलीब अपनी पीठ पर खुद ढो रहा है
जवाब देंहटाएंजीवन का यथार्थ यही है..इस यात्रा में हमें वही मिलता है जो हम देते हैं..बहुत सुंदर गजल..
बहुत बहुत शुक्रिया अनीता जी।
हटाएंबढ़िया लिखा है
जवाब देंहटाएंशुक्रिया शिव जी।
हटाएंSahi kaha,haqiqat hai ye zindagi ki...
जवाब देंहटाएंशुक्रिया मंटू।
हटाएंहर शख्स अपना सलीब अपनी पीठ पर खुद ढो रहा है
जवाब देंहटाएं...कमाल का मिसरा है! सत्य है। बढ़िया ग़ज़ल के लिए बधाई।
बहुत शुक्रिया देव बाबू ।
हटाएंउम्दा..यदि वश चलता तो सभी दूसरे के कंधे पर ही अपना सलीब भी रख देते पर ..हम बेचारे...
जवाब देंहटाएंबहुत शुक्रिया अमृता जी ।
हटाएंबहुत खूब ... हर शेर में जीवन का सच छिपा है ...
जवाब देंहटाएंदूसरा ओर पांचवां शेर तो दिल को अंदर तक छूता है ... जमाने का सच लिए ...
बहुत शुक्रिया दिगंबर जी ।
हटाएंwah wah bahut khoob imranji...
जवाब देंहटाएंharek jabz sachchai ki dastan hi to hein...
बहुत शुक्रिया सुनील ।
हटाएंबहुत खूब हुज़ूर |
जवाब देंहटाएंकभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
Tamasha-E-Zindagi
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जिंदगी की सच्चाई से रु ब रु करवाया है आपने इस रचना में ... बहुत प्रभावपूर्ण !
जवाब देंहटाएंये कर्म क्षेत्र की भूमि है
जवाब देंहटाएंकर्मो का हिसाब का बोझ तो खुद ही है उठाना
खुश रहो और दुसरो को ख़ुश रखो
यही संदेसा दे जाना
बहुत अच्छा लिखते हो आप !!
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bahut sunder ghazal
जवाब देंहटाएंbahut...unda imranji.
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