जनवरी 22, 2013

सफ़र



जितना पास गया मैं उतनी ही दूरी बढ़ती रही 
जिंदगी सिवाय सफ़र के और कुछ भी नहीं,

न रखना कभी किसी से कुछ पाने की उम्मीद 
लेना जानते हैं लोग यहाँ, देने को कुछ भी नहीं, 

उमर बिता दी जिसने जीतने में दुनिया सारी
क्या लेकर गया सिकंदर यहाँ से कुछ भी नहीं,

मैं कैसे दावा कर दूँ मसीहाई का ए ! दोस्त  
खुद मेरे दामन में दर्द के सिवा कुछ भी नहीं, 

ले अपने आगोश में कर मुझको फ़ना मेरे ख़ुदा 
बाकी बचे मेरा अब मुझमे निशां कुछ भी नहीं,

क्यूँ किसी हुस्न-ए-बुतां में ढूँढते हो तुम उसे 'इमरान'
हर ज़र्रे में नुमाया है वो उसके सिवा और कुछ भी नहीं,


जनवरी 16, 2013

अँधेरा



रात नींद नहीं आ रही थी उसे
आधी रात के करीब गुज़र चुकी थी
आखिर उकता के वो खिड़की 
के पास आकर खड़ी हो गई,

गली के नुक्कड़ के पास 
वहाँ कूड़े के ढेर में
जहाँ गली के आवारा कुत्ते 
रात के सन्नाटे में 
अपने पेट कि आग मिटाने को
जगह-जगह मुँह मार रहे थे,

पुराने खम्बे कि पीली सी 
खस्ताहाल रोशनी में
एक काला सा साया 
लड़खड़ाते क़दमों से 
उस तरफ बढ़ता जा रहा था,

चारों तरफ़ एक नज़र देखकर 
अपने लबादे में से एक पुलन्दा 
सा निकल के फेंक दिया था उसने 
न जाने क्या था उसमे ?

वो 'पुलन्दा' फेंक कर जैसे 
जान छुड़ा कर भागा था साया
भागते हुए उसके लम्बे बालों के सिवा
फासले से और कुछ भी नज़र न आया,

नज़र पड़ते ही कुत्ते झपटे थे
और मिनटों में भंभोड़ डाला था,
पूरे दिन के भूखे थे जानवर
जिसके हिस्से में जो आया 
उसने उतना ही नोच लिया था,

अगली सुबह जब नुक्कड़ 
से गुज़र रही थी वो, तो देखा
लोगों का हुजूम सा लगा था
उसने भी झाँक कर देख लिया था

वहाँ इंसानी गोश्त के लोथड़े पड़े थे
एक दुधमुंही बच्ची कि नोची 
खसोटी सी लाश पड़ी हुई थी 
शायद रात का वो 'पुलिंदा'
वो मासूम सी 'बच्ची' ही थी,

कई सवाल ज़ेहन में गूँजते ही रहे 
जो रात इसे यहाँ फेंक के गई थी 
क्या वो भी एक 'माँ' थी?
क्या वो भी एक 'औरत' ही थी? 
ये बच्ची उसके पापों का बोझ था 
या उसकी मजबूरियों की गठरी,

आखिर क्यों एक औरत ही दूसरी औरत 
के खिलाफ कदम उठा लेती है,
वक़्त को बदलने के लिए 
चाहें कितनी ही मुश्किलें क्यूँ न हों,
एक औरत को दूसरी औरत के 
साथ खड़ा होना ही पड़ेगा,

जनवरी 08, 2013

बाँझ

प्रिय ब्लॉगर साथियों,

मैं एक समाज सेवी संस्था में कार्यरत हूँ जहाँ बच्चे 'गोद' दिए जाते हैं। जब लोग यहाँ आते हैं तो देखता हूँ की लोगों के चेहरों पर कितनी निराशा और जिंदगी में कितना अधूरापन है। पर जब वो एक मासूम बच्चे को गोद लेते हैं तो उनकी ख़ुशी का भी कोई ठिकाना नहीं होता। ख़ुदा सबको औलाद से नवाज़े.......आमीन।

जब भी कभी कोई ऐसा मिलता है तो मैं यही कहता हूँ की निराश होने की बजाय तुम किसी का सहारा बनो और वो तुम्हारा सहारा बनेगा......आप लोग भी ऐसी कोशिश ज़रूर करें और बेऔलाद लोगों को प्रोत्साहित करें कि वो किसी यतीम को अपना नाम दें । तो आज कि ये पोस्ट उन लोगों के नाम :- 

सब कहते थे ......उसका ही कसूर है 
काले साये उसे चारो तरफ से
घेर कर चीखते थे, चिल्लाते थे -
बाँझ ! बाँझ ! बाँझ !

पुराने पीपल के फेरे भी लगाये थे उसने,
मंदिर में सुबह-ओ-शाम दिया-बाती की 
दरिया पार वाले पीर बाबा की 
मन्नत का धागा भी बांधा था,

पर कोख सूनी की सूनी रही 
जलती रही, तड़पती रही, रोती रही वो 
और खुद से ही पूछती रही.........
क्या सच में ही वो एक बंजर ज़मीन है
जिस पर कभी कोई फूल नहीं खिलेगा? 

नहीं, उसके साये में बीज ज़रूर पनपेगा
उसकी गोद में भी किलकारियाँ गूँजेंगीं 
वो एक लावारिस को अपना नाम देगी 
एक नई जिंदगी को पहचान देगी, 

और अब एक यतीम घर का वारिस है 
और उसे 'माँ' का रुतबा हासिल है 
जिससे बड़ा और कोई रुतबा नहीं 
दोनों ने एक दूसरे 'पूरा' किया है,

खून की शिरकत से ही रिश्ते नहीं बनते 
वो तो प्यार से सींचे जाते हैं...........