अगस्त 05, 2013

करम


बहुत सख्त हो कर भी टूट जाता है दरख़्त 
बचता है वही जो अन्दर से कुछ नरम हो, 

कोई किसी का दुश्मन न रहे जहाँ में  
काश के दुनिया में एक ऐसा धरम हो, 

मिलेगी तुझे भी पाक सुराही से शराब 
शर्त है ये मगर की प्यास तेरी चरम हो,

बच जाता है वो शख्स गुनाहों से अक्सर 
बाकी जिसके अन्दर थोड़ी सी शरम हो,

अपनी तलाश निकालती है गौतम*को बाहर 
दुनिया की ऐश से भरा चाहें उसका हरम हो, 

सवालिया निशान लगते हैं तेरे वजूद पर भी 
दिखा अपना जलवा दूर दुनिया का भरम हो, 

मंजिल खुद तुम्हें ढूँढ लेगी एक रोज़  'इमरान' 
तेरे मौला का बस एक तुझ पर जो करम हो, 

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*गौतम* - यहाँ आशय गौतम बुद्ध से है । 

25 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सार्थक और ख़ूबसूरत ग़ज़ल...

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  2. शर्म के मारे अब बचे कितने !
    ग़ज़ल अच्छी लगी !

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    1. कम ही सही मगर हैं तो अभी भी ……शुक्रिया ।

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  3. "रोशनी गर खुदा को हो मंजूर
    आंधीयों में चिराग जलते है"
    खुदा गवाह है... :))

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  4. बहुत खुबसूरत ग़ज़ल !!

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  5. बहुत ही सुन्दर और सच्चे शब्द इमरान भाई. बेहतरीन संदेशप्रद ग़ज़ल बनी है.

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  6. बहुत सुंदर जज्बात..उसी का करम चाहिए और बाकी सब हो जाता है..

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  7. शुक्रिया यशोदा जी हमारे ब्लॉग की पोस्ट यहाँ शामिल करने का |

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  8. खुद पाने की ललक ऐसी ही होती है..... सुंदर भाव

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  9. वाह ... बेहतरीन गज़ल ....

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  10. बहुत खूब ... हर शेर अपने मतलब को स्थापित कर जाता है ... स्पष्ट बात को रखता हुआ हर अशआर ... मज़ा आ गया इमरान जी ...

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  11. सुन्दर और नेक अहसासात !!!

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  12. ईद का इससे खुबसूरत तोहफ़ा और क्या हो सकता है ? शुक्रिया कुबूल करें... मुबारबाद भी..

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  13. बच जाता है वो शख्स गुनाहों से अक्सर
    बाकी जिसके अंदर थोड़ी सी शर्म हो....!

    बहुत सही कहा...
    लेकिन इंसान बाज नहीं आता...!
    न गुनाहों से तौबा...
    न बची है शर्म....!
    तो क्या करें हम.....??

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जो दे उसका भी भला....जो न दे उसका भी भला...